योग एवं पंचकर्म चिकित्सा (स्वानुभूत योगाभ्यास विधि) • डॉ. गिरधारी लाल मिश्र


 


श्वास रोग ‘प्राणवह स्रोतस' का रोग है एवं फुफ्फुस इसका प्रमुख अधिष्ठान है तथा कफवातात्मक है। अतः यदि प्राणवायु का आवागमन निर्बाध गति से हो तथा कफ का शोषण कफ का शोषण जाय तथा उसका वृद्धि पर नियंत्रण हो जाय तो श्विास रोग पर नियंत्रण किया जा सकता है और 'दमा दम के साथ जाता है' की उक्ति को निरर्थक सिद्ध किया जा सकता है। जीवन में उससे सुरक्षित रहा जा सकता है। असम प्रदेश में कफ एवं वात रोगों का बाहुल्य है अतः कफ प्रधान देश तथा कफ प्रधान भोजन |(चावल) होने से कफ प्रधान रोगों में श्वास रोग का स्थान सर्वोपरि है। अतः श्वास रोगों के रोगी अधिक आते हैं। आयुर्वेद में रोगी सब तरफ से निराश होकर आते हैं। वह भी यह भावना लेकर 'कि आयुर्वेद में रोग जड़ से मिट जाता है पर रोग की जड़ पाना ही कठिन है। पथ्यपर्वक रहने वाला विशेष श्वास रोगी भी जलवायु के परिर्वतन के साथ तत्काल आक्रांत हो जाता है। कब आकाश मेघाच्छन होकर वर्षा प्रारम्भ हो जाय और घर में पथ्यपूर्वक रहते हुए भी रोगी का दम फूलने लगे और हॉस्पीटल आना पड जाए।



 


 


अतः श्वास रोगियों की चिकित्सा में आयुर्वेद पंचकर्म, एक्यूपंक्चर गों का प्रयोग करते-करते अनेक प्रयोगों का परीक्षण करते-करते योग की ओर ध्यान गया और सर्वप्रथम श्वास रोग नाशार्थ योग शास्त्र का अध्ययन आरम्भ किया। स्वर विज्ञान में श्वास रोगनाशक विधियों का रोगियों पर सह चिकित्सा के रूप में प्रयोग सन् 1985 में ही प्रारम्भ किया तथा सैकड़ों रोगियों पर परीक्षणोपरान्त ही ‘स्वानुभूत विधि' प्रस्तुत की जा रही है जिसका प्रयोग श्वास रोग के असाध्य और निराश व्यक्ति कर स्वास्थ्यमय दीर्घजीवन यापन कर सकते हैं। अत: यदि जब चिकित्सा विधियों से निराश हो चुके हैं तो अवश्य अपनाइये। यदि योगाभ्यास की विधियों से वही व्यक्ति लाभान्वित हो सकता है जो योगाभ्यास को अपने दैनिक जीवन का अंग बना ले। अन्यथा पहले दिन पूरे जोर-शोर से योगाभ्यास करें। दूसरे दिन आधा, तीसरे दिन • डॉउससे भी आधा और चौथे दिन एकदम ही भूल जाएं कि योगाभ्यास से लाभान्वित नहीं हो सकते। स्वर शास्त्र और श्वास रोग :- प्रसंगवश स्वर विशाल शास्त्र का अति संक्षिप्त विवेचन अत्यावश्यक है। शास्त्र का अति संक्षिप्त विवेचन अत्यावश्यक है। कारण कि ‘स्वर और श्वास' एक शब्द के दो अर्थ हैं या दूसरे शब्दों में एक ही सिक्के के दो पहलू' हैं। स्वर शास्त्र की शिक्षा प्राप्ति हेतु श्वासप्रश्वास के नियम के विषय में अच्छी प्रकार से ज्ञान लाभ करना आवश्यक है। प्राणवायु को ‘नि:श्वास' और विकृति ‘प्रश्वास' नाम से पुकारा जाता है। नासिका श्वास-प्रश्वास का प्रमुख यंत्र है। अतः नाक द्वारा रा श्वास ग्रहण करने का नाम 'नि:श्वास' तथा नाक । द्वारा परित्याग का नाम ‘प्रश्वास' है। जीवन के जन्म से मृत्यु के अंतिम क्षण तक श्वासप्रश्वास श्वासप्रश्वास की क्रिया नाक द्वारा होती रहती है। अतः योग अतः योग क्रिया शास्त्र के जिन विभाग में श्वास-प्रश्वास की क्रिया शास्त्र के जिन विभाग में श्वास-प्रश्वास का क्रिया विशेष द्वारा जीवात्मा के साथ परमात्मा का संयोग संयोग आरोग्यमय दीर्घजीवन तथा सांसारिक जीवन की । सफलता विपदाप्रद रोग-आरोग्य की प्राप्ति का । ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है उसे 'स्वर शास्त्र' कहत स्वर और श्वास :- नासिका द्वारा प्राणवायु के . • आवागमन का नाम ही 'श्वास' है। पर यह श्वास ' हा पर यह श्वास की क्रिया नाक के दोनों छिद्रों से एक ही समय में पित्त किया नियंत्रण एक ही साथ समान रूप से नहीं होती बल्कि श्वास लेने पर कभी दायां नाक और कभी-कभी एकाध क्षण के लिए एक ही समय दोनों नाकों से समान भाव से श्वास प्रवाहित होता है। बायें नाक से वायु - का ग्रहण नि:श्वास होता है तो दायें नाक से वायु का त्याग प्रश्वास होता है। जिस तरह किसी विशाल भवन के प्रवेश और बहिर्गमन अलग-अलग होते हैं उसी तरह शरीर में प्राणवायु के आवागमन (आना-जाना) के दो मार्ग ही नाम के दोनों नथुने हैं जिनसे नियमित श्वास-प्रश्वास की क्रिया विधिवतू जारी रहती है तथा इसे आयुर्वेद के रोगस्त दोष वैषम्यम' के अनुसार स्वर क्रिया विकृति ही रोग है। यात्रा के वि . तिदिन पात. सूर्योदय के समय से 1-1 घंटे के हिसाब से क्रमशः 1-1 नासिका से श्वास चलता है। इस प्रकार बारह बार बायीं नाक से तथा 12 बार दायीं नाक से ( 24 बार 24 घंटे) क्रमानुसार श्वास की । क्रिया होती है, का भी निर्दिष्ट नियम है। पर रोग की अवस्था में इस नियम में व्यवधान है व इसका । अनियम ही रोग है। । स्वर और त्रिदोष :- स्वर शास्त्र के अनुसार स् प्राणवायु के आगमन के लिए 72000 नाड़ियां मानी गयी हैं जिनमें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना तीन प्रमुख हैं, जो आयुर्वेद के त्रिदोषवाद की आधारशिला है। . इड़ा नाड़ी (चन्द्र स्वर) बायें नाक से, पिंगला (सूर्य स्वर) दायें नाक से तथा सुषुम्ना दोनों नाकों के मध्य से (शिव स्वर) अपने नियत समय से प्रवाहित होते हैं अतः चन्द्र, सूर्य स्वर उसी प्रकार अपना कार्य नियमित करते हैं जिस तरह संसार में चन्द्र, सूर्य अपना कार्य नियमित रूप से करते हैं। स्वर और श्वास चिकित्सा सूत्र :- आचार्य चरक के शब्दों में-‘श्वास रोग कफवातात्मकावेतो पित्त स्थान समुद्भवः।' कफ वातात्मक तथा स्थान समुद्भव हैं अतः वायु पर नियंत्रण हो तथा कफ का शासन हो जाए और पित्त, अग्नि, (जठराग्नि) सम्यक् हो तो श्वास रोग पर नियंत्रण किया जा सकता है। श्वास-प्रश्वास की क्रिया पर नियंत्रण करने से श्वासकृच्छूतावास कष्ट से बचा जा सकता है। चन्द्र स्वर कफवर्द्धक है अत: चन्द्र, स्वर पर नियंत्रण करने से कफ का शमन हो सकता है। कफ शमनार्थ सूर्य स्वर का अधिका प्रयोग लाभदायक है। वाम चन्द्र स्वर कफवर्द्धका है, दाहिना सूर्य स्वर उष्ण है अतः दिन-रात में जितना अधिक दाहिना सूर्य स्वर चलेगी कफ जल जायेगा और कफ के शमन हो जाने से तथा पित्त के कारण अग्नि वृद्धि (जठराग्नि) प्रदीप्त होने से रोग का शमन हो जायेगा। श्वास रोग के प्रमुखतः 2 चिकित्सा प्रकार हैं- 1. रोग के वेग की समस्या में यन्त्रणा दूर करें। 2. नाक रोग की शमन चिकित्सा।। श्वास वेग में रोग का आक्रमण बड़ा ही कष्टदायक होता है तथा रोगी येन-केन-प्रकारेण श्वास कष्ट से बचना चाहता है तथा स्वर परिवर्तन द्वारा (जो छिद्र भी स्वर चल रहा हो उसे बदल देने) व जो स्वर श्वास चल रहा है उसे एकदम बन्द कर देने से 10-15 तथा मिनट में ही आराम होता हुआ नजर आयेगा। अर्थात् यह विधि तत्काल फलप्रद है किन्तु मैं इस विधि का सर्वप्रथम उल्लेख नहीं करना चाहता। पहला कारण मैंने जब पहले पहल पुस्तकों के आधार पर श्वास वेग के समय इस विधि का प्रयोग करना शुरू किया तो उत्साहजनक परिणाम सामने नहीं आये। कारण एक तो रोगी कष्ट में रहता है, दूसरे वामशायी उसको विषय का ज्ञान बिल्कुल भी नहीं होता तथा रोगी जब तक स्वयं प्रयोग विधि को समझ न सके ( तब तक इच्छानुकूल लाभ मिलना मुश्किल है। नहींअतः मैं चाहता हूं रोगी इसका अभ्यास धीरे-धीरे पदमासन करते हुए दोनक जीवनचयों के रूप में परिणत कर दें तो वह जीवनभर श्वास रोग से सुरक्षित रह प्राणायाम सकता है। । यही स्वानुभुत योगाभ्यास :- श्वास रोगी को चाहिये ।।हय तैयारी की विधि को प्रकृति अनुकूल बनाये रखते हुए प्रयोग करें। एतदर्थ यह आवश्यक निर्देश है कि पहले रोग आक्रमणकाल में उचित चिकित्सा व्यवस्था एवं पथ्य पालन द्वारा रोग के उपद्रवों को प्रशमन कर लें तथा फिर सामान्य अवस्था में अत्यंत ही सामान्य विधियों द्वारा धीरे-धीरे इस रोग पर विजय प्राप्त करें तो ‘दमा ब्रह्यममुहूर्त दम के साथ' कहावत को प्रत्यक्ष रूप में असिद्ध कर सकता है। श्वास रोगों का दैनिक योगाभ्यास :- श्वास रोगी को रोग शमनार्थ एक ही सूत्र याद रखना है तो दाहिने स्वर का अभ्यास अधिक चलाने का प्रयास करें। वामशायी :- रात्रि में केवल बायें करवट सोने का अभ्यास बढ़ाना चाहिए। रात्रि ही क्यों? दिन-रात । जब चाहें सोना हो तो केवल बायीं करवट लेटने 7 अभ्यास करना चाहिए। बाया करवट लटने का पास रहस्य यह है कि बाय करवट लटने से दाया स्वर विज्ञान तथा बायीं करवट लेटने से बायां स्वर चलता है। यह बिल्कुल प्रत्यक्ष विधि है तथा इसके परीक्षण को आप अभी इस लेख को पढ़ते-पढ़ते ही समझ प्रकाश सकते हैं। आप यदि श्वास रोगी हैं तो समझ लीजिये अभी से आपकी चिकित्सा प्रारम्भ है। आप रूककर लेख को पढ़ना बंद करके अपनी नाक से श्वास फैकिये तथा नाक से श्वास फेंकते समय अपने हाथ की हथेली को नाक के सामने कीजिये तो आपको बड़ी सरलता से यह ज्ञान हो जायेगा कि नाक के दोनों छिद्रों में से किसी एक छिद्र से ही श्वास आ रहा है तथा एक छिद्र बंद है। श्वास रोगी का अधिकतर बायां नाक ही चलता है तथा इसको दाहिने में परिवर्तन करना ही इस रोग की चिकित्सा है जिसे आप उठते-बैठते, रहा सोते-जागते बराबर ध्यान में रखें। एतदर्थ सबसे विपरीत पहला अभ्यास रात्रि में अधिक से अधिक बायीं करवट सोने की आदत डालने पर रातभर सूर्य स्वर चलता रहेगा जिससे कफ प्रशमन होने से रोग के आक्रमण से बचे रहेंगे। वामशायी और पद्मासन :- रात्रि में बायीं करवट शयन करने के साथ-साथ जब कभी भी ( भोजन करने के बाद वे जब पेट भरा हो तब नहीं) पदमासन से बैठने का अभ्यास कीजिये। पदमासन से शरीर के दोषों का प्रशमन होता है, नाडियां निर्मल होती हैं तथा योगाभ्यास एवं प्राणायाम के अभ्यासों में सफलता मिलती है। बस यही समझिये ‘पद्मासन' योगाभ्यास की पहली तैयारी है। आप जब योगाभ्यास करना चाहते हैं तो । ३ जव योगाभ्यास = योग के लिये आपको बैठना तो आना चाहिए। ती जा पर वायां पैर दाहिनी जंघा पर, बायां हाथ बायें घुटने पर, दायां हाथ दायें घटने पर, पीठ सीधी, दृष्टि नासिका पर, इस तरह बैठना रहस्य ही पद्मासन है। ब्रह्यममुहूर्त से प्रारम्भ :- रात्रि में यथासंभव बायीं करवट के अभ्यास से रोग के आक्रमण में कमी आने लग जायेगी क्योंकि दाहिने स्वर के चलने से विसर्जन अग्नि तत्व की वृद्धि से जल तत्व का शमन होने विसर्जन लगेगा तथा रात्रि में श्वास रोग से मुक्त होकर आराम से सुख की निद्रा सोयेंगे। ब्रह्मममहर्त का समय श्वास रोगी के लिए बड़ा कष्टप्रद होता है। रोगी की प्रातः 3 बजे स्वतः आंख खुल जाती है नित्यकर्म और श्वास का वेग तीव्र चलने लगता है। श्वास का आक्रमण प्रातः 3 बजे ही प्रमुखत: क्यों होता है? इसका सटीक उत्तर एक्यूपंक्चर विज्ञान के , पास है उतना किसी के पास नहीं। क्युपंक्चर विज्ञान के अनुसार प्राणशक्ति शरीर के प्रत्येक अवयव में चौबीस घंटे में एक निश्चित समय पर ही अधिक रहती है (इस विषय पर अन्य लेखों में प्रकाश डालेंगे)। अतः प्रात: 3 से 5 बजे का समय फेफड़ों को प्राणशक्ति प्रवाह होने के कारण दमा का आक्रमण प्रातः 3 से 5 बजे के बीच ही प्रमुखतः होता है अतः प्रातः निद्रा भंग होते ही आंख खुलते ही बिस्तर पर बैठने से पहले लेटे-लेटे ही स्वर परीक्षा कीजिये। यदि बायां स्वर चल रहा हो तो तब तक न उठें जब तक कि दाहिना स्वर न चले। अतः बायां स्वर चल रहा हो तो स्वर परिवर्तन विधि से दायां स्वर चलाइये तथा स्वर अच्छी तरह चल रहा हो तभी उठिये। स्वर परिवर्तन विधि :- जिस तरफ का स्वर चल रहा हो उसी करवट लेटकर उसी स्वर को बंद करें। विपरीत स्वर से श्वास खींचने से स्वर परिवर्तन हो जाता है। जिस तरफ का स्वर चल रहा हो उस ओर की कांख में कोई सख्त चीज दबाने से कुछ देर में स्वर परिवर्तन हो जाता है। दाहिना स्वर चलना :- प्रातः बिस्तर पर लेटे-लेटे ही बायीं करवट लेटकर तथा बायें नथुने दबाकर दाहिने नथुने से श्वास खींचिये और दाहिने नथुने से ही श्वास छोड़िये, बायें नथुने को बिल्कुल मत खोलिये तो दाहिना स्वर चलने लगेगा। यदि स्वर शीघ्र न चले तो बायीं कांख में तकिया या कोई सख्त चीज दबाकर तथा बायें नथुने को बंद करके दाहिने नथुने से श्वास खीचिये और छोड़िये तो दाहिना स्वर चलने लगेगा। प्रातःकाल का एक घंटा :- उपरोक्त विधि से दायां स्वर चलने लग जाने पर दाहिने हाथ से शरीर के दाहिने भाग पर फेर कर पहले द पर रखकर बिस्तर का त्याग करना चाहिये। (इस रहस्य पर अन्य लेख में प्रकाश डालेंगे)। प्रति घंटे स्वर परिवर्तन स्वतः होता रहता है अतः दायां स्वर चला लेने पर यह एक घंटे तक अबाध गति से चलता रहेगा। अग्नि तत्व के चलते रहने से मल विसर्जन ठीक होगा, कब्जियत नहीं होगी (मल विसर्जन अच्छी तरह हो जाय तो स्वत: दमा का दौरा रूक जाता है) अतः प्रात:काल रोग का आक्रमण ही नहीं होगा किन्तु रोगी को चाहिये कि घंटे के अंदर मल विसर्जन, दन्तधावन, स्नान नित्यकर्म से निवृत्त होकर चाय, जलपान कर लें। असम प्रदेश में प्रात:काल चाय पीने की प्रथा है। वैसे तो राजस्थान जैसे छाछ प्रिय प्रदेश में भी चाय लोकप्रिय हो गयी है पर यहां असम की प्रकृति के अनुकूल होने के कारण हम चाय पर प्रतिबंध नहीं लगाते हैं। योगी लोग योगाभ्यासी को चाय पीने से मना करते हैं ऐसी स्थिति में हम उन्हें अदरख की चाय पीने का निर्देश देते हैं। एक चम्मच व आवश्यकतानुसार अदरख को पानी में उबालकर गुड अथवा मीठा कर पीना चाहिये पर प्रात:काल उष्ण पेय पीना अनिवार्य है, एकदम खाली पेट न रहे। प्रात:काल के दाहिने स्वर का यह लाभ होगा कि दिन में दोपहर तक के लिए आप रोगों के आक्रमण से बचे रहेंगे। भोजन से पूर्व :- दोपहर में भोजन पर बैठते समय भी एक बार स्वर देखना न भूलें। यदि स्वाभाविक दाहिना स्वर चल रहा हो तो अच्छा है। अन्यथा बायीं करवट लेटकर दाहिना स्वर चलाकर भोजन करने से कफ की वृद्धि नहीं होगी तथा शीघ्र पाचन होने में सहायता मिलेगी। बहुत लोगों की आदत होती है कि भोजन के बाद थोड़ी देर के लिए सोना, किन्तु श्वास रोगी व कफ प्रकृति वाले के लिए अत्यन्त ही हानिकारक है अतः दिन में नहीं सोना चाहिए। यदि भोजन के बाद लेटना ही हो तो बायीं करवट लेटना चाहिए, इससे दाहिना स्वर चलने पर भोजन का पाचन तो शीघ्र होगा ही श्वास रोग का आक्रमण भी नहीं होगा, पर ध्यान रहे लेटने का अर्थ निद्रा लेना नहीं है, बस लेटना ही अभिष्ट है। निद्रा लेना इतना हानिकारक है कि एक झपकी ही आपके दिनभर के अभ्यास को गुड़-गोबर (व्यर्थ) कर देगी। प्राणायाम :- श्वास रोग पर अंतिम ब्रह्ममास्त्र है प्राणायाम, जो महर्षि पतंजलि के शब्दों में-‘श्वास प्रश्वासयोर्गति विच्छेद प्राणायामः।' श्वास-प्रश्वास की गति का विच्छेद व निरोध कर श्वास पर नियंत्रण पाना ही श्वास रोग पर नियंत्रण है। प्राणायाम में दाहिना स्वर :- पद्मासन में बैठकर बायें नाक के नथुने को बायें हाथ के अंगूठे से बंद कर दाहिने नथुने से श्वास धीरे-धीरे खींचें तथा खींचते हुए ही बिना कुम्भक किये (बिना श्वास छोड़े। प्रारम्भ में पहले दिन 3 बार काजिये तथा प्रतिदिन एक-एक बार बढ़ाते हुए 20 बार तक या इससे भी अधिक बार तक अभ्यास को बढ़ाइये। ध्यान रहे इस क्रिया को धीरे-धीरे करना चाहिए। बहुत लोग शीघ्र लाभ के फेर में पहले ही दिन ज्यादा अभ्यास कर लेते हैं जिससे रोग बढ़ जाता है। तथा अभ्यास बीच में ही छोड़ देते हैं। धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ाने से रोगी स्वयं अपने अनुकूल स्थिति का अध्ययन करते हुए अभ्यास करेगा उसे किसी गुरु या निर्देशक की आवश्यकता ही नहीं होगी। वह स्वतः ही अपने अनुकूल अभ्यास को बढ़ाता जायेगा। जब अभ्यास ठीक होने लगे तब धीरे-धीरे कुम्भक का अभ्यास करना चाहिए। दायें नथुने से श्वास धीरे-धीरे खींचें तथा फिर नथुना बंद कर यथाशक्ति रोकें, जबरदस्ती न करें।