(Chromo Therapy)

 


वेदों में सूर्य को इस स्थाबर और जंगम जगत की आत्मा कहा गया है। पुराणों एवं उपनिषदों में सूर्य को मनुष्य मात्र का प्राण कहा गया है। हमारे ऋषि-मुनियों ने इसी बात को ध्यान में रखते हुए ‘सूर्योपासना' एवं 'सूर्य नमस्कार' विधियों का आविष्कार किया। अपनी दिनचर्या में से प्रातः केवल दस मिनट का समय निकालकर हम अनेक रोगों से अपने आप का बचाव कर सकते हैं। वेदों में कहा गया है- उदित होता हुआ सूर्य मृत्यु के सभी कारणों अर्थात् सभी रोगों को दूर करता है। उदित होते हुए सूर्य से ‘अवरक्त' (हल्की लाल-Infra Red) किरणें निकलती हैं। इन किरणों में जीवनी शक्ति में जीवनी शक्ति होता है। रागा को नष्ट करने का विशिष्ट शक्ति होती है। उदित होते हुए सूर्य की किरणों में सभी प्रकार के हृदय रोग, पीलिया एवं रक्ताल्पता को दूर करने की शक्ति होती है। सूर्योदय के समय (जब आकाश में केवल सूर्य की लालिमा हो) सूर्य की ओर मुंह करके उपासना आदि करने से सूर्य की अवरक्त किरणें सीधे हमारी छाती पर पड़ती हैं और उनका प्रभाव हमारे स्वास्थ्य पर पड़ता है। नीरोगी मनुष्य को प्रतिदिन इन किरणों का प्रयोग केवल पाँच मिनट ही पर्याप्त है। इससे रोग प्रतिरोधक शक्ति का विकास होता है तथा ' रोगों से बचाव होता है। सूर्य किरणों से चिकित्सा के कई नाम प्रचलित हैं। ‘सूर्य चिकित्सा' ‘सूर्य किरण चिकित्सा' ‘रंग चिकित्सा' आदि (Chromo Therapy, Chromopathy, Colours Therapy), चिकित्सा में सूर्य किरणों को सीधे । । शरीर के अंगों पर लेना होता है। सूर्य किरणों से प्रभावित जल, चीनी, तेल, घी, ग्लिसरीन । ' आदि का प्रयोग भी किया जा सकता है। वैसे तो सूर्य चिकित्सा का क्षेत्र बहुत व्यापक है। परन्तु यहाँ साधारण जनमानस के व्यावहारिक ज्ञान हेतु संक्षेप में दिया जा रहा है। आयर्वेद में सर्य किरण चिकित्सा में जिन रोगों का उल्लेख हुआ है, उनमें मख्यत:- सिर दर्द कान ट’ मनालापता या के रोग बहरापन, अंधापन, शरीर में दर्द व जकडन, सभी प्रकार के ज्वर पीलिया पेट के विविध रोग, वात रोग, कफज रोग, मूत्र विकार, फेफड़ों के रोग, आँतों के रोग, योनि रोग, टी. बी., घुटने व कूल्हे के रोग आदि हैं। सर्य से प्राप्त होने वाली किरणें सात रंग की होती हैं। इनमें से हर रंग की अपनी अलग ऊर्जा होती है। ये सात रंग इस क्रम से होते हैं- बैंगनी (Violet), नीला (Indigo), आसमानी (RILal हरा (Graan) पीला (Vallow) (Blue), हरा (Green), पीला (Yellow), नारंगी (Orange), एवं लाल (Red), आयुर्वेद के अनुसार प्रत्येक रंग की किरण का प्रभाव शरीर पर अलग-अलग होता है। इनका प्रभाव नीचे से ऊपर की किरणों की ओर बढ़ता है। अर्थात् सबसे कम प्रभाव लाल किरण, फिर नारंगी और अंत में सबसे अधिक प्रभाव बैंगनी रंग की किरण का होता है। बैंगनी से अधिक प्रभाव वाली किरणें परा बैंगनी (Ultra Violet) तथा लाल से कम प्रभावशाली किरणे अवरक्त कहलाती हैं। औषधि निर्माण के लिए, जिस रंग की किरणें की दवा बनानी हो उसी रंग की कांच की बोतल ली जाती है। कांच की बोतल सफेद रंग की लेकर उस पर उसी रंग का पतला कागज लपेट दिया जाता है। इस चिकित्सा में स्वच्छ जल का प्रयोग Colours अधिकतर किया जाता है। कांच की बोतल । * (रंगीन या कागज लिपटी हुई) में स्वच्छ जल । . भर देते हैं तथा ऊपर से थोड़ी खाली रखते हैं। ९॥ बोतल का ढक्कन बन्द कर देते हैं। फिर बोतल त को 6 से 8 घंटे तक धूप में लकड़ी के पटरे पर रखते हैं। बोतल का सम्पर्क पृथ्वी से नहीं होना चाहिए। यदि एक से अधिक बोतल हों तो एक दूसरी बोतल की छाया भी एक दूसरी पर नहीं पड़नी चाहिए। फिर रात्रि में धूप से हटा कर कमरे में पटरे पर ही रखनी चाहिए। ध्यान रखें कि बोतल का सम्पर्क पृथ्वी से ना हो, तथा रात्रि में चाँदनी भी इस बोतल पर ना पड़े। एक बार बनी दवा सात दिन तक प्रयोग कर सकते। ह। वस्तुतः मूल रंग तीन ही होते हैं- लाल, पीला तथा नीला। इनके सम्मिश्रण से ही अन्य रंग बन जाते हैं। आयुर्वेद ने भी इन सात रंगों को तीन प्रकार में बांट दिया है। 1. पीला, नांरगी, लाल, 2. हरा 3. बैंगनी, नीला, आसमानी। इस आधार पर तीन प्रकार के रंगों व की दवा बनाने से ही काम चल जाता है। नारंगी, हरा व नीला, जन्य रोगों के लिए, तथा नीला रंग पित्त जन्य रोगों के लिए प्रयुक्त होता है। इस प्रकार त्रिदोषज चिकित्सा की जाती है। साधारणतया नारंगी रंग की दवा भोजन के बाद 15 से 30 मिनट के अन्दर ली जाती है। हरे और नीले रंग की दवा खाली पेट या भोजन से एक घंटा पहले लेनी चाहिए। विभिन्न रंगों की बोतलों के पानी का प्रयोग :- 1. नीला :- (बैंगनी, नीला, । आसमानी) चाहें तो अलग-अलग या चाहें तो नीले रंग की बोतल का पानी बनाकर प्रयोग करें। यहाँ हम तीनों रंगों का उपयोग । अलग-अलग बता रहे हैं। बगना Violer बैंगनी (Violet) :- यह रक्त में लाल कणों की वृद्धि करता है। खून की कमी को दूर करता है। क्षय रोग में विशेष उपयोगी है। इसके सेवन से नींद अच्छी आती है। नीला (Indigo) :- यह जीवनीय शक्ति प्रदान करता है। शीतलता और शक्ति प्रदान करता है। कुछ कब्ज अवश्य करता है। इसकी क्रिया शरीर पर अति शीघ्र होती है। यह गर्मी के कारण होने वाले सभी रोगों पर कार्य करता है। शरीर में पैदा हुई अतिरिक्त उष्णता को शान्त करता है। यह योनि रोग, रक्त प्रदर, आमाशय, अण्ड कोश वृद्धि आदि रोगों में लाभदायक होता है। आसमानी (Blue) :- यह शीतल होता है तथा पित्तजन्य रोगों में लाभदायक होता है। यह प्यास एवं आमाशय की उत्तेजना को शान्त करता है। यह एक अच्छा पोषक टॉनिक और एण्टीसेप्टिक है। सभी प्रकार के ज्वरों के लिए यह रामबाण है। रक्त प्रवाह को रोकता है। यह ज्वर, खाँसी, पेचिश, संग्रहणी, दमा, सिर दर्द, मूत्र रोग, पथरी, त्वचा रोग, दिमाग के रोगों में लाभदायक है। प्रयोग विधि एवं मात्रा :- हरे रंग की बोतल का पानी तैयार करके सुबह-शाम खाने से एक घंटा पहले 50-50 मि.ली. पानी पीना है। 2. हरा (Green) :- यह प्रकृति का रंग है। यह मन एवं शरीर को प्रसन्नता प्रदान करता है। माँसपेशियों को ताकत प्रदान करता है। रक्त शोधक है। यह वात रोग, टायफाइड, मलेरिया, यकृत एवं गुर्दो की सूजन, सभी चर्म लाल रोग, नेत्र रोग, मधुमेह, खांसी, जुकाम, पीना बवासीर, कैंसर, रक्तचाप, आदि में लाभदायक दस्त है। प्रयोग प्रयोग विधि एवं मात्रा :- इस रंग की बोतल किया का पानी तैयार करके सुबह-शाम खाने से एक गुणकारी घंटा पहले 50-50 मि.ली. पानी पीना है। 3. नारंगी (पीला, नारंगी, लाल) :- चाहें हैतो अलग-अलग या चाहें तो नारंगी रंग की जोड़ों बोतल में पानी तैयार करके प्रयोग करें। में पीला :- यह शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए उत्तम है। यह हल्का तथा रेचक भी है। पाचन संस्थान को ठीक करता है। यह तैयार हृदय एवं उदर रोगों में लाभदायक है। यह कुछ उष्ण होता है। अतः पेचिश या इससे मिलते-जुलते रोगों के रोगी को यह नहीं दिया जाता। यह पेट दर्द, पेट फूलना, कब्ज, कृमि रोग, मेद रोग, हृदय, जिगर और फेफड़ों के रोगों रोगों में लाभप्रद है। यह युवा पुरुषों को शीघ्र असर दिखाता है। इस रंग का पानी थोड़ी मात्रा में लेना चाहिए। नारंगी :- यह रक्त संचार को सुचारु रखता पीना है। मानसिक शक्ति व इच्छा शक्ति को बढ़ाता है। कफ जन्य रोगों को नाश करता है। यह वैकल्पिक चिकित्सा विशेषांक खांसी, बुखार, निमोनिया, फ्लू, श्वास रोग, क्षय रोग, गठिया, अजीर्ण में लाभदायक है। लाल :- यह अत्यन्त गर्म होता है। अतः इसे पीना वर्जित है। इसको पीने से उल्टी या खूनी दस्त लगने की संभावना हो जाती है। इसका प्रयोग बाहरी रूप से लगाने व मालिश करने में किया जाता है। यह आयोडीन से भी अधिक गुणकारी होता है। यह रक्त एवं स्नायुमण्डल को उत्तेजित करता है। शरीर में गर्मी को बढ़ाता है। इसकी मालिश सभी प्रकार के वात रोगों, जोड़ों के दर्द, मांसपेशियों के दर्द, गठिया आदि में आराम करती है। अधिक आराम एवं शीघ्र आराम के लिए लाल रंग की बोतल में नारियल का तेल भरकर, पानी की तरह ही तैयार करें। तथा मालिश के काम में लें। बस सावधानी रखें कि शीशी को 24 घंटे लकड़ी के पट्टे पर रखना है (पृथ्वी से सम्पर्क ना हो) तथा दिन में धूप में व रात में कमरे के अन्दर (चाँदनी से सम्पर्क ना हो) रखें। वात रोगों में मालिश के लिए यह सर्वोत्तम तेल है। प्रयोग विधि एवं मात्रा :- सुबह-शाम खाने के 15 मिनट से 30 मिनट बाद 20-20 मि. ली. पानी पीना है। लाल बोतल का पानी नहीं पीना है।