आहार-कब-कितना और क्यों ?

                                    आहार-कब-कितना और क्यों? 


आहारचार चेष्टासु सुखार्थी प्रेल्य चेहा च। परमप्रल मातिष्ठे द्रमान हित सेव मानव जीवन का लक्ष्य है सुख और शान्ति। इस । लक्ष्य की प्राप्ति तभी हो सकती है जब शरीर स्वस्थ और निरोग हो, मन स्थिर और अचंचल । । हो। चरक संहिता में स्वास्थ्य को ही श्रेयस्कर बताते हुए कहा है।। धर्मार्थ काम मोक्षाणामारोग्यं मलमत्रयम' । रोगास्तरस्यापहार्तारः श्रयसो जीवितस्य च।। चा। ष्ट है कि सारा दारोमदार स्वास्थ्य * तरफ आर संसार के हजारों सुख एक तरफ। एक स्वस्थ भिखारी रूग्ण करोड़पति से ज्यादा सुखी होता है। तंदुरूस्ती के लिए संतुलित और पौष्टिक आहार आवश्यक है, आहार सात्विक और सुपाच्य होना।। चाहिए। शरीर के कोष नित क्षीण होते रहते हैं। आहार से नये कोषों का निर्माण होता है। आहार से शरीर की व्यय होने वाली ऊर्जा की पूर्ति होती है। साथ ही शरीर के लिए अतिरिक्त शक्ति का संचय भी तिरिक्त शक्ति का संचय भा' 'इससे होता है।



इसलिए स्वास्थ्य ठीक रखने की लिए पौष्टिक आहार नितांत आवश्यक है। चरका संहिता में पूर्ण स्वास्थ की परिभाषा करते हुए इसके तीन उपस्तम्भ आधार बताए गए हैं। त्रयः उपस्तम्भा इत्याहारः स्वप्नो ब्रह्मचर्य ' | मिति। एभिस्त्रिनियुक्ति मुत्रेस्पस्तब्ध | पुपस्तम्भैः शरीरम्। बलवर्गोपचयोपचित । मनुवर्तये याववायुः संस्कारात्॥ । पूर्ण स्वस्थ संतुलित भोजन स्वप्न (निद्रा)। अर्थात् पूर्ण विश्राम, ब्रह्मचर्य संयम इन तीनों को मुक्ति युक्त रखने से मनुष्य सदा पूर्ण स्वस्थ रहते हुए दीर्घायु प्राप्त करता है। आहार, निद्रा और 'ब्रह्मचर्य वात-पित्त और कफ को समान रखते हुए शरीर को निरोग बनाए रखते हैं। । तीन उपस्तम्भों पर आधारित आयर्वेद का यहां सिद्धान्त अवस्थानुसार बाल, युवा, वृद्ध, स्त्री-पुरुष सबके लिए समान रूप से हितकर और क्यों? ।। और व्यावहारिक है। जिस प्रकार तिपाई का पाया टूटते ही तिपाई गिर जाएगी उसी प्रकार तीन होता उपस्तम्भों में से किसी एक के बिगड़ते ही शेष स्थिरता शरीर दोनों उपस्तम्भ स्वयमेव लड़खड़ा जाते हैं। भोजन । आहार नियमित न रहने पर निद्रा और ब्रह्मचर्य श्रेयस्कर कदापि यथावत् नहीं रह सकते। । है।। इन तीनों आधारों में प्रथम है आहार। मुख्य । रूप से अन्नापानदिक ही आहार की संज्ञा में गिने जाते हैं। तथापि अन्नादि के अतिरिक्त जल और ।। वाय भी शरीर के लिए अनिवार्य आहार है। शरीर होतीकी क्षतिपूर्ति और शक्ति अर्जन तो भोजन से होता है, किन्तु जल भोजन का प्रधान सहायका बना है। भोजन पचने और उसके प्रचषण में उससे, । सहायता मिलती है। शरीर को बल और शक्ति राजस आहार आहार से मिलती है। ।। भोजन ही प्राणियों को नया बल और शरीर होती धारण करने की शक्ति प्रदान करता है। इससे आहार आय, उत्साह, ओज तथा शरीराग्नि की वद्धि राजस होती है। आहार से ही हमारी चित्त-वृतियां बनती जलन हैं। जिस प्रकार का अन्न हम ग्रहण करते हैं हमारी चित्त-वत्ति भी उसी प्रकार की हो जाती ' 'हमारी चित्त-वृत्ति भी उसी प्रकार की हो जाती है। सात्विक आहार करने वालों की चित्त-वित्त चरका सात्विक रहती है जबकि राजसी और तामसी होते हुए आहार ग्रहण करने वालों की चित्त-वृत्ति राजसी हैऔर तामसी हो जाती है। ' इसीलिए कहा जाता है जैसा हो । | अन्न वैसा होवे मन, एक । कहावत प्रचलित हैं :। साधु अच्छी भीख से रहते । सदा प्रसन्न। बुद्धि भ्रष्ट कर देता है अन्यायी का अन्न। श्रीमद्भगवत गीता में भगवान और 'श्री कृष्ण ने विविध आहार रखते का उल्लेख किया है। । सात्विक, राजस और तामस। यहां सात्विक आहार :- सात्विक , भोजन रसदार होता है। स्निग्ध अर्थात् घृत घी मात्रा उसमें । • वैद्य अधिक होती है। हृदय का आनन्द बढ़ाने वाला होता है। शरीर में स्थिरता अर्थात् वीर्य को स्थिरता प्रदान करने वाला होता है। सात्त्विक भोजन से दीर्घायु की प्राप्ति होती है। सत्व अर्थात् जीवन का बल बढ़ता है, शरीर की शक्ति बढ़ती है, आरोग्य प्राप्त होता है, सख की वद्धि होती है और मानसिक प्रसन्नता होती है। सात्विक लोगों के यहां भोजन अतिप्रिय होता है। इसमें अत्याधिक मिर्च नहीं होती, अधिक खटाई नहीं होती, यह न तो अति उष्ण होता है और न ही अति-शीत होता है। यह सरस होता है और ताजा बना होता है। मन को प्रसन्न करने वाला होता है।



राजस आहार :- राजस आहार में अत्यंत मिर्च, खटाई, नमक अर्थात् तीक्ष्ण की मात्रा अधिक होती है। अति उष्ण, अति शीत, अति तीक्ष्ण और अति रूक्ष अर्थात् खुश्की पैदा करने वाला भोजन राजस होता है। यह भोजन से मुख में रखते ही जलन उत्पन्न करता है। जिससे मुख, नाक और आंख से पानी निकलने लगता है। पेट में पहुंचने पर वहां भी जलन होने लगती है। इसमें खुश्की अधिक होती है। रूखे-सूखे तले हुए अन्न इसमें होते है। रसीलापन नहीं होता इससे प्यास लगती है। इससे रोग बढ़ते है जिससे दु:ख और क्लेश बढ़ते है। इस भोजन से सप्त धातुओं में विषमता बढ़ती है। आयु क्षीण होती है, धातु क्षय होती है। रोगों के आक्रमण से बल घटता है। तामस आहार :- सड़ा हुआ, बड़ी देर से पड़ा हुआ, कृमि-कीटों से भरा हुआ बाल, नाखूनों के स्पर्श से दोष मुक्त, दुर्गन्ध युक्त और जूठा अन्न तामसी होता है। यह हर तरह से रोगों और अस्वास्थ्य का कारण होता है। बुद्धि को मलिन करता है, आयु की क्षीणता बढ़ता है और हर प्रकार के कष्ट उत्पन्न करता है। इससे मनुष्य सुस्त, आलसी मलिन और प्रमादी होता है। इस कारण यह खराब होता है। जहां तक संभव हो ो व हा इससे दूर रहे। आयुर्वेद के अनुसार रज और तम चित मानस दोष कहे जाते है। मानसः पुनरुद्विष्टो रजश्च तप एवच॥ रज और तम की वृद्धि से मानसिक अस्वास्थ्य उत्पन्न होता है। मानसिक असन्तोष से उत्पन्न काम, क्रोध, भय, विषाद, उन्माद आदि मानसिक । रोग उत्पन्न होते हैं इससे मानसिक असंतुलन * बढ़ता है। पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति की परिभाषा इस प्रकार हैं : * समदोषः समाग्रिश्च सम धातु मल क्रिय। प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्याभिधीयते॥ । अथात् वही मनुष्य स्वस्थ है जिसके शरीर में वात अर्थात् स्नायु मण्डल (Nervous System) पित्त अर्थात् पाचकाग्नि एवं रक्त संवहन (Digestion and blood Circulatory System) और कफ अर्थात् ओज और मलोत्सर्ग पाचक निश्चित अवस्था में और बराबर-बराबर हो। रस, रक्त, मज्जा, मांस आदि धातुएं समान हों और लिखा मलों के बाहर निकलने की क्रिया ठीक से हो, अर्थात् पाखाना, पेशाब, कफ, पसीना आदि समय पर निकलता रहे। इसके साथ ही आत्मा इन्द्रियां और मन प्रसन्न रहे। आहार की मात्रा :- भोजन की मात्रा और समय भी महत्वपर्ण है। भोजन ठंस-ठंस कर नहीं करना चाहिए अन्यथा वह ठीक से नहीं पचाता है। भोजन अपनी भूख से कुछ कम ही आमाशय को चार भाग में बांट कर, दो भाग भोजन से पूरा । करना चाहिए, एक हिस्सा पानी के लिए छोड़ देना चाहिए और चौथा हिस्सा खाली रखना । चाहिए जिससे शरीर में वायु का संचार ठीक से । हो सके। इससे भोजन पचने में आसानी होती है। हा आहार का समय :- इसी प्रकार भूख लगने पर ही भोजन करना चाहिए। आयुर्वेद में इस बारे में चाहिए। आयुर्वेद में इस बारे में बहुत सुन्दर सुक्त है : मात्रा याममध्येय न भोक्तव्यं यामयुग्मं न लंधयेत्।। याममध्ये रसोद्वेगः युग्मेऽतीते बलं क्षयः॥ अर्थात् एक बार भोजन करने के तीन घंटे के। अन्दर कुछ भी नहीं खाना चाहिए तथा छह घंटे वैसे से अधिक बिना भोजन के नहीं रहना चाहिए। एक क्योंकि तीन घंटे के भीतर रस का उद्वेग हो जाता है और छह घंटे तक भोजन न करने से शरीर का बल घट जाता है। हमारे देश में जलवायु के मुताबिक किशोरावस्था में तीन बार, युवावस्था में दो बार और वृद्धावस्था में एक बार दैनिक भोजन करना चाहिए। भोजन की विधि :- शांत और प्रसन्न चित्त से ो भोजन करना चाहिए। यदि भोजन करने वाले का । चित अशांत हो, ईष्र्या, क्रोधादि विकारों से ग्रस्त |हो तो उत्तम भोजन भी व्यर्थ चला जाता है। भोजन का पूजन करके खाना चाहिए। मनुस्मृति मुझसे होगापूजये दशनं नित्यमद्या चैनमकुख्सयन्। । १६ दृष्ट्वा दृष्योत्प्रसीदेच्च प्रतिनन्देच्च सर्वशः॥ |हाथ पैर धोकर स्वच्छ आसन पर बैठकर भोजन करना चाहिए। भोजन अच्छी तरह चबाकर निगलना चाहिए, जल्दी बाजी में भोजन पेट में ठूसना नहीं चाहिए। इससे भोजन ठीक से बच्चा नहीं पचता और मंदाग्नि रोग भी हो जाता है। ी को जाता है। कहावत है दांतों का काम आंतों से नहीं लेना एक चाहिए कम खाना अधिक चबाना, यही है |तंदरूस्ती का खजाना है। चबाने से मुख की ग्रंथियों से विशेष प्रकार की लार निकलती है जो पाचक होती है। इससे भोजन गले के नीचे उतरने में भी आसानी होती है। महात्मा गांधी ने भी लिखा है, भोजन को खूब चबाचबाकर ही खाना ढालने चाहिए। भोजन के बाद आधे घंटे तक विश्राम |करना चाहिए। विश्राम का अर्थ सोना नहीं है। अभी भोजन के बाद कम से कम एक घंटा तक सोना जिसके भी लाभदायक नहीं है। किसी भी प्रकार का परिश्रम या व्यायाम करने के तुरन्त बाद भोजन नहीं करना चाहिए। पके हुए अनाज की अपेक्षा सच्चा कच्चे और अंकुरित अन्न ज्यादा लाभप्रद होते हैं। गलती आयुर्वेद में हितकर भाजन का हिताशन, नियत से समय के भोजन को निमताशन और उचित मात्रा |में भोजन को मिताशन कहा जाता है। इसी प्रकार । असात्मय भोजन को अहिताशन, असमय भोजन को विषमाशन और जल्दी-जल्दी दो तीन घंटे पर । भोजन को अध्यशन कहा जाता है। अतएव, उसका भोजन के समय और उसकी मात्रा पर सावधानी बरतनी चाहिए। भोजन की मात्रा वही श्रेष्ठ है जो आसानी से पच जाए। : है मात्रा प्रमाणं निर्दिष्टंस सुखं यावत् विजीर्यते।