आयुर्वेद में आहार की भूमिका

                     आयुर्वेद में आहार की भूमिका


विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) द्वारा विश्व की 120 चिकित्सा पद्धतियां मान्यता प्राप्त हैं, जिनमें से शायद ही किसी अन्य पद्धति में यह अध्याय हो, जो विश्व की चिकित्सा पद्धतियों की जनक-मातृ पद्धति प्राचीनतम, निर्दोषतम् चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद में आचार्य चरक का चातुर्य एवं गौरव हैंवय उपस्तंभ इति आहार स्वप्नो । ब्रह्मचर्यमिति। (च.स. 11/35 ) - आहार, स्वप्न (निद्रा) और ब्रह्मचर्य ये शरीर के * 3 उपस्तंभ (शरीर को धारण करने वाले) कहे गए हैं। इन्हें उपस्तंभ इसलिए कहा गया है कि शरीर का प्रथम धारक तो पारब्ध (पर्वजसकतकर्म) है। मनुष्य का जन्म-मरण उसके हाथों में नहीं। कब, कहां, कैसे, किस मनुष्य का जन्म या मृत्यु हो, यह प्रारब्ध का विषय है। । हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु विधि . हानि :- ये 6 विधि (विधाता-कर्म फलानुसार) के हाथ में हैं। हम जिस लोक में रहते हैं या नाम मृत्युलोक है, अत: यहां सबके लिए मृत्यु अवश्यभावी है। चिकित्सक के प्रयत्न करने से असाध्य रोगी भी गतायषु न होने पर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करते हैं, अन्यथा ‘अपि धन्वन्तरि वैद्यः किं करोति गतायषुः' वैद्य धन्वन्तरि भी गतायषु (जिसकी आयु शेष नहीं रह गई है) को आयु प्रदान नहीं कर सकते। जैसे दीपक में तेल समाप्त होने पर वह बुझ जाता है। शरीर का अर्थ है ‘शीर्यते इति शरीरम' अर्थात जो नाश को प्राप्त होता है वह शरीर है, अतः शरीर को धारण करने में शरीर को स्वस्थ बनाये रखने में आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य ये 3 ही ब्रह्मचर्य (उष्ण स्तम्भ) हैं जो शरीर को स्वस्थ, निरोग और हृष्ट-पुष्ट रखकर दीर्घायु प्रदान करते हैं। आचार्य चरक के शब्दों में आयुर्वेद का सर्वोपरि प्राचीनतम अनुसंधान है। 



शरीर के तीन उपस्तम्भ - 1. आहार, 2, निद्रा, 3. ब्रह्मचर्य। ।।1. आहार :- आहार ही शरीर का संचालन करता है, सम्पूर्ण शरीर को विकसित करता है। • डॉजीवन की सभी आवश्यक क्रियाओं में शरीर के जीव कोष हमेशा टूटते रहते हैं, जिससे शक्ति का हैक्षय होता रहता है। आहार जीवकोषों का निर्माण करता है, प्राणरसिक एवं शक्तिदायक है तथा महत्ता बल, वर्ण एवं योग का सूत्रधार है। जिस प्रकार बेचैनी वायु और जल जीवन के लिए आवश्यक है, एक आहार भी उसी प्रकार उतना ही आवश्यक है। आयुर्वेद के महर्षियों ने पदार्थ विज्ञान पर अनुसंधान करके पदार्थ के 3 बुनियादी तत्वों की 1खोजकर के सिद्धान्त प्रचलित किए, जिन 3 3खा तत्वों पृथ्वी, जल और वायु पर शरीर निर्भर रहता ‘. है। आहार पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। शुद्ध ९ ' हमारे जीवन की गाड़ी का पेट्रोल किस प्रकार एक का हो ताकि यह जीवन गाड़ी अबाधगति से मनगतिशील रहे उसका प्रथम आधार आहार ही है। हमारा पर यदि हम विचार करें तो विगत दो दशकों के लाइफस्टाइल में भारी बदलाव आया है। खाने की चीज, खाने का ढंग, खाने का समय सब कछ रसबदल गया है, उस बदली लाइफस्टाइल ने हमारे में होती स्वास्थ्य को इतने खतरे में डाल दिया है कि आज चिकित्सा जगत के विचारशील, चिन्तन प्रकार चिकित्सक चिन्तित है कि लाइफ स्टाइल को कैसे रोक जाए। आज प्रत्येक व्यक्ति कम्पनी क्वालिटी ब्राण्ड से अवगत है तथा कपडे, जते. मोबाइल, टी.वी., फ्रिज आदि कुछ भी खरीदते हुए इसका ध्यान रखती है पर जब आहार की बात आती है तो फास्ट फूड, जंक फूड के रूप में कुछ भी चलता है। ब्रेड, अण्डा, बिस्कुट, सेण्डवीच, पिज्जा, बर्गर, पकोड़ा, समोसा, चाऊमीन, मसालदार चटपटी चीजें आदि गरिष्ठ भोजन है जो देर से पचते हैं जिन्हें आयुर्वेद के अनुसार कुभोजन कहा है जो शरीर को ऊर्जा नहीं रोग के आगमन की खुलन-खुली छूट देता है और यह हैरान करने की बात है कि आयुर्वेद के देश में स्वास्थ्य की अनदेखी फैशन का रूप ले (रहा है। । आयुर्वेद चरक के शब्दों में-देहो आहार सम्भव' अर्थात् शरीर आहार से ही संभव है। किया वेदों में कहा गया है ‘अन्न' प्राणिनां प्राणः केवल अर्थात् अन्न (आहार) ही प्राणी मात्र का प्राण है। जीवन की गाड़ी को चलाने वाला पेट्रोल आहार ही है। तीव्र भूख लगने पर आहार की महत्ता स्पष्ट रूप से समझ में आती है। भूख जहां बेचैनी पैदा करती है, वहीं भोजन के बाद इससे एक तुष्टिदायक तृप्ति मिलती है। भरपेट भोजन करने पर शरीर में उत्साह और स्फूर्ति उत्पन्न होने लगती है। इस प्रकार आहार के 3 कार्य होते हैं1, तृप्ति, 2. शरीर की क्षीणता की पूर्ति और 3. शारीरिक संवर्धन। ‘आहार शुद्धि सत्व शुद्धि' :- आहार यदि शुद्ध पवित्र होगा, तो हमारा मन भी पवित्र होगा। एक कहावत है- ‘जैसा खाए अन्न, वैसा रहे मन।' हम जैसा आहार ग्रहण करेंगे, वैसा ही हमारा आचरण-व्यवहार होगा। ग्रहण किया हुआ आहार 3 भागों में विभक्त हैं- 1. स्थूल आहार अंश से मल बनता है, 2. मध्यम अंश से रस-रक्तादि धातुएं बनती हैं, जो देह को धारणा करती है तथा 3. सूक्ष्म अंश से मन की पुष्टि होती है। जिस प्रकार दही को मथने पर उसका सूक्ष्म अश घृत के रूप में ऊपर आ जाता है, उसी प्रकार अन्न के सूक्ष्म अंश से मन बनता है। अतः शरीर के साथ मन भी अन्नमय-आहारमय है। आहार से शरीर के साथ मन भी सबल होता है, मन की शक्ति बढ़ने लगती है। यहां उल्लेखनीय है कि खाद्य-अखाद्य को लेकर पश्चिमी देशों में जिस प्रणाली से विचार किया गया है, वह सर्वांगपर्ण नहीं है। उन्होंने केवल इतना ही विचार किया है कि किस आहार द्रव्य में कैसा रासायनिक द्रव्य कितना है। प्रोटीन, कैल्शियम, कार्बोहाइड्रेट, वसा, खनिज-लवण, विटामिन जिसमें अधिक हो, वह खाद्य तथा जिसमें कम हो, वह अखाद्य है। पश्चिमी देशों, प्रधान दशा यूरोप, जमना आदि में शीत ऋतु ही अधिक रहती है तथा वहां फल और हरी सब्जियां नहीं होतीं। रोटी के नाम पर जहां भारत में कितने अन्न की कितनी प्रकार की रोटी पर र एक अध्याय लिखा जा सकता है वहीं पश्चिमी देशों में मैदा को सड़ाकर पावरोटी (डबल रोटी) ८) बनती है तथा सब्जी के नाम पर केवल आलू आलू रसरहितऔर प्याज होता है, जिसे रोटी में भरकर या रोटी पर डालकर पिज्जा, बर्गर आदि तैयार करके . । मनुष्य प्रयोग में लाया जाता है। प्रवासी भारतीयों ने ही । वहां फल-सब्जियां उपलब्ध कराई है। -मोठा, खट्टा, खारा, तीखा, कड़वा और कसैला से युक्त आहार प्रयोगशाला स युक्त आहार संतुलित आहार होता है। इन रसों से युक्त आहार से शरीर को सम्पूर्ण पोषक तत्व मिलते हैं तथा शरीर स्वस्थ रहता है। दूसरी ओर इन रसों की विषमता ही रोग है। मीठा रस का अधिक सेवन करने से कफ विकृति, मधुमेह आदि, अधिक । पथ्य यी त ट ने लिखा रोग तथा चटपटे पदार्थों से पित्त की विकृति-अम्लपित्त, अल्सर आदि रोग होने की पथ्येसति आशंका बनी रहती है। पथ्य अब भारत की दाल की पौष्टिकता पर जरा पथ्य विचार करें। हमारे यहां दाल में गुड-शक्कर (मीठा रस), इमली, नींबू या अमचूर (खट्टा पालन रस), नमक (नमकीन रस), हल्दी, जीरा, ऐसा धनिया (कसैला रस), मिर्च (तीखा रस), राई, महीनों मेथी का छोंक (कड़वा रस) डालकर दाल बनाई जाता है, जो सभी 6 रसों से युक्त संतलित आहार का उत्तम उदाहरण है। भारत में 6 ऋतुएं होती हैं दही तथा प्रत्येक ऋतु के अनुसार उत्पन्न होने वाले अन्न-फल-सब्जियां की व इनसे तैयार होने वाले । दोबारा व्यंजनों की सूची बहुत लंबी है। इसके अतिरिक्त विविध प्रांतों के भी विविध स्वादिष्ट-पौष्टिक आहार है। ऋतुभेद से वात-पित्त-कफ की न्यूनाधिकता होने के कारण शारीरिक-मानसिक यद्यच्चोक्तं अवस्था में कितना परिवर्तन होता है, यह जानने अर्थात् की विधि पश्चिमी देशों में नहीं है।


हैसत्व, रज और तम के आधार पर भी आहार पथ्य के भेद हैं सतोगणी जोगणी और तमोगणी अर्थ आहार पटरसयक्त स्निग्ध सात्विक भोजन अतः आय-वलव आयु-बलवर्धक होता है। राजस आहार अधिक प्रिय = कडवा, खट्टा, तीखा, चटपटा व रुक्ष होता है, वाले जो जो दुश्चिंता और रोगों को उत्पन्न करता है। विचार रसरहित, दर्गधयक्त, बासी, जठा तमोगुणी आहार निश्चित व धयत वामी जटा तमोगणी आहार मन को विकत करता है। तामसिक आहार से ही इसके . मनुष्य में दुष्प्रवृत्तियां-भ्रष्टाचार, घूसखोरी, मात्रा। चोरबाजारी, अशांति, कलह आदि उत्पन्न होती पथ्य है। प्याज-लहसुन में विटामिन अदि की दृष्टि से भोजन बहत गुण हैं, अतः चिकित्सा के रूप में इनका मलप्रयोगशाला मना गया है लेकिन दैनिक सेव प्रयोग ग्राह्य मना गया है, लेकिन दैनिक सेवन के व्यक्ति रूप में तामसिक गण बढ़ाने वाले होने के कारण हमेशा शाशा विरुद्ध पथ्य-अपथ्य आहार :- हितकर आहार को घी । * हितकारी पथ्य और अहितकर आहार को अपथ्य कहा गया । लिखा आ जाते है। वैद्यराज लोलिम्बराज की यह उक्ति तो अमर जारी सकते ही हो गई हैकाल पथ्येसति गदार्तस्य किमौषध निषेवणैः।। पथ्य जो पाले रोगी, औषधि का क्या काम।। पथ्य पथ्य न पाले रोगी, तो करे क्या औषधि काम॥ मात्राअत: यह सही है कि किसी भी रोगी में पथ्य 2. पालन का बहुत महत्व है। हमारी नानी-दादी भी ऐसा कहती थी, 1-2 महीने नहीं बल्कि पूरे 12 १२ * देशमहीनों के लिए बताती थी कि कब, क्या खाना । अतचाहिए और क्या नहीं, जैसे चैत्र में गुड़ नहीं 1.1. खाना चाहिए वैशाख में तेल नहीं खाना चाहिए चाहिएजेठ में अधिक घूमना-फिरना नहीं चाहिए, मात्रा जेल में अधिक घमना-फिरना नहीं चाहि मात्रा आषाढ़ में अधिक खेलकूद हानिकारक है, सावन में साग (पत्तेदार हरी सब्जियां) नहीं खाना 4. चाहिए, भादों में दही (मटठा) हानिकारक है, अधिक क्वार में करेला नहीं खाना चाहिए, कार्तिक में 5. दही नहीं खाना चाहिए, अगहन में जीरा का 6. प्रयोग नहीं करना चाहिए, पुस में धना का प्रयोग इससे नहीं करना चाहिए, माघ में मिश्री नहीं खाना 7. चाहिए और फाल्गुन में चना का सेवन नहीं शक्ति करना चाहिए। ये ऐसे पदार्थ हैं, जो ऋतु के चाहिएअनुसार भी असात्मय-अपथ्य है। यदि भोजन करने के बाद इसका पाचन होने से पहले ही किस । दोबारा भोजन किया जाए, तो पाचन बिगड़ में जाएगा और आहार भी अपथ्य हो जाएगा। आहार-विहार एवं स्वास्थ्य विशेषांक आचार्य चरक के शब्दों में- ‘पथ्य पथोऽनपेतं यद्यच्चोक्तं मनसः प्रियम्। (च.सू. 25/45) अर्थात् पथ्य के लिए जो अनपेत हो, वहीं पथ्य है। इसके अतिरिक्त मन को जो प्रिय लगे, वह पथ्य है और इसके विपरीत अपथ्य है। पथ का अर्थ है शरीर तथा अनर्पत का अर्थ है उपकारी, अतः जो शरीर के लिए उपकारी हो प्रिय लगे, वह पथ्य तथा इसके विपरीत भाव वाले आहार आदि अपथ्य है। ध्यान रहे, बिना विचार किए ही किसी भी पदार्थ को हम निश्चित रूप से पथ्य-अपथ्य नहीं कह सकते. इसके लिए इन तथ्यों पर विचार करना चाहिए मात्रा, काल, क्रिया, भूमि, देह और दोष। अतः पथ्य ही सब कुछ नहीं है। भूख से थोडा कम भोजन करने वाला, हितकारी पदार्थ खाने वाला, मल-मूत्र के वेगों को न रोकने वाला, शाकाहारी व्यक्ति ही निरोग व दीर्घायु होता है। इसलिए हमेशा हितकारी भोजन ग्रहण करना चाहिए तथा विरुद्ध आहार, जैसे दूध और मछली, शहद और घी (समभाग) आदि का सेवन न करें। वैसे हितकारी आहारसेवी भी अस्वस्थ्य होते देखे । जाते हैं, जिसके लिए कई कारण उत्तरदायी हो जारी है सकते हैं, जैसे असात्मेन्द्रियार्थ संयोग, प्रज्ञापराध, काल परिणाम आदि। पथ्य :- अपथ्य को प्रभावित करनने वाले मात्रा-काल-देश के अतिरिक्त आचार्य चरक ने आहार ग्रहण की 8 विधियां बताई हैं- 1. प्रकृति, 2. कारण (संस्कार), 3. संयोग, 4, राशि, 5. : १२ देश, 6. काल, 7. उपयोग और 8. उपभोक्ता। । अत: संक्षेप में निम्नलिखित नियम पालनीय हैं:1.भा 1. भोजन करने के तुरंत बाद पानी नहीं पीना चाहिए। 2. उष्ण आर स्निग्ध आहार उचित मात्रा में प्रह मात्रा में ग्रहण करना चाहिए। 3. वीर्य विरुद्ध आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए। 4. बोलते हुए, हंसते हुए, जल्दी-जल्दी और अधिक उष्ण भोजन नहीं करना चाहिए। 5. भोजन के बाद सौ कदम चलना चाहिए। 6. भोजन के बाद बाई करवट लेटना चाहिए। इससे भोजन का पाचन आसानी से होता है। 7. मात्रा और अपने अग्निबल अर्थात् पाचन शक्ति का ध्यान रखकर ही भोजन ग्रहण करना चाहिए। आयर्वेद की भोजन संस्कति बहुत गहन है। किस आयु और प्रकृति के मनुष्य को किस ऋतु में कैसा आहार किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए कि वह आरोग्दायक, सुखदायक व तृप्तिप्रद हो, इस पर विस्तृत विवेचन आयुर्वेद ग्रंथों में उपलब्ध है, अतः हमें इसका लाभ अवश्य प्राप्त निम्नलिखित करना चाहिए। अग्निवर्धक उपाय-प्रयोग :- शरीर के पोषण और वृद्धि के लिए पाचन तंत्र का स्वस्थ होना नितांत आवश्यक है। वैसे तो पाचन प्रणाली के ही इतने रोग हैं कि पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है, पर सभी रोगों का मूल अग्नि विकृति-अग्निमांद्य व मंदाग्नि है, जो धीरे-धीरे उत्पन्न होती है तथा अपने में अनेक रोगों को समेटे हुए चिरकारी, बहुत दिनों तक चलने वाले हो जाती है। अग्निमांद्य हो जाने पर आहार का पाचन ठीक से नहीं होता, जिससे अजीर्ण-आध्मान, उदरवात, उदर शूल, परिणाम शूल, अम्लपित्त, आमाशयिक व्रण, अतिसार, प्रवाहिका, ग्रहणी, छर्दि, कति, यकत विकार, अर्श, भगंदर, यकृत शोथ, आंत्र शोथ, लिवर कैंसर, जलोदर, भस्मक, मलावरोध आदि का प्रकोप भुगतना पड जाता है। अतः अग्निमांद्य से बचाव आवश्यक अग्निमांद्य से सुरक्षा हेत और इस रोग से मक्ति है। पाने के लिए कुछ प्रभावी उपाय-प्रयोग निम्नलिखित हैं:1. भोजन के पूर्व थोडी-सी अदरक काटकर उसमें नमक लगाकर सेवन करना अग्निवर्धक है। 2. भोजन के बाद तक्र (मठा) में लवण 9डालकर व लवण भास्कर चर्ण डालकर पीना जिनमें अग्निवर्धक है। | 3. जिस तरह देवताओं के लिए अमत हितकर है, उसी तरह भोजन के बाद मट्ठा पीना हितकर है। 4. भोजन के बाद चित्रकादि वटी लेने से भोजन आसानी से पच जाता है। 5. यदि भोजन के बाद पेट में भारीपन हो तो हिंग्वाष्टक चूर्ण, पेस्टी अग्निमुख चूर्ण, अग्नितुण्डी वटी आदि का प्रयोग उत्तम है। 6. यदि अम्लपित्त हो, खट्टी डकारें तत्व आती हों, छाती में जलन होती हो, तो सूतशेखर रस और अविपत्तिकर चूर्ण का सेवन हितकर है। मिलावट 7. यदि कब्ज हो, ता पंचसकार चूर्ण, शिवाक्षार विषैले पाचन चूर्ण, अर्क पुदीना, अमृतधारा, सौंफ पाचन चूर्ण, अर्क पुदीना, अमृतधारा, साफ रहे अर्क आदि का सेवन करना चाहिए। 8. आरोग्यवर्धिनी अपने नाम के अनुरूप ही गुणकारी है। यह वास्तव में आरोग्य को बढ़ाने आहार-विहार एवं स्वास्थ्य विशेषांक वाली है, उत्तम दीपन-पाचक, क्षुधावर्धक, मलावरोधनाशक है। यदि मुख से गंध आती हो, तो इसकी 2-2 गोलियां त्रिफला चूर्ण के साथ सोते समय सेवन करने से लाभ मिलता है। 9. आयुर्वेद में कई उत्तम आसव-अरिष्ट भी हैं, जिनमें पंचारिष्ट उत्तम अग्निवर्धक है। इसके अलावा कुमार्यासव, रोहितकारिष्ट, मुस्तकारिष्ट, कुटजारिष्ट, जीरकाद्यरिष्ट, तक्रारिष्ट आदि योग हैं, जिनका चिकित्सक रोग की स्थिति के अनुसार प्रयोग करते हैं। आधुनिक कीटनाशक रसायनों के प्रयोगों, पेस्टी साइड का तथा आक्सीटोसिन के अंधाधुंध प्रयोगों से खाद्यान्नों, फलों, सब्जियों के पौष्टिक तत्व समाप्त हो रहे हैं। वे स्वाद रहित व जहरीले हो रहे हैं तथा व्यापारी विषैल नकली द्रव्यों की मिलावट कर रहे हैं जिनसे खाद्य पदार्थों में विषैले तत्व उत्पन्न होकर वा रहे हैं। अत: इन पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए।