जैसे सूर्य प्रातः बालक की तरह मुस्कुराता हुआ ठुमक ठुमक कर अपनी लाल रंग की रश्मियों के साथ उगता हुआ सुन्दर दिखता है तथा दिन के मध्याह्न में अत्यन्त प्रचण्ड, तेजवान, शक्तिशाली, सबको विचलित कर देने वाला बन जाता है। परन्तु वही सूर्य सायं काल अपनी प्रतिभा को समेटता हुआ कान्तिहीन, तेजहीन, पीला-सा अस्ताचल पर्वत की ओर विश्राम हेतु जाता है, ठीक इसी प्रकार मनुष्य का जीवन है। मानव का का होता पंचाने वाला मानव का बचपन चिन्तारहित खाने-पीने, खेलने का होता है। जवानी में शक्तिशाली सब कुछ पंचाने वाला मदमस्त होकर जीता है, परन्तु वृद्धावस्था की ओर अग्रसर होते हुए जैसे ही उम्र ढलान में आती है शरीर के सभी अंग निष्क्रिय व तेजहीन होने लगते हैं। इन्द्रियों में शिथिलता एवं धीमापन आ जाता है। जठराग्नि मन्द हो जाती है। इस अवस्था में विभिन्न प्रकार के भोजन खाने । का जी करता है परन्न पचना नहीं है। यदि वा लें तो पेट में अपच, खट्टी डकारें आती हैं। बस फिर वही जवानी के दिन याद आते हैं। यह ऐसी अवस्था होती है कि तन बुढापे की राह में डगमगाने लगता है परन्तु मन जवानी की छलांगें लगाना चाहता है। मन अत्यन्त चंचल हो जाता है तथा इधर-उधर भटकता है। इस उम्र में शरीर कमजोर होने के कारण विभिन्न प्रकार की बीमारियां कौरवों की तरह निर्बल शरीर रूपी था एक साथ हमला करती हैं। बस यही समय होता है कि हर मनुष्य । को जो इस अवस्था में प्रवेश कर रहा है
बुजुर्गों का कैसा हो आहार-विहार