हकलाहट एक बीमारी


हकलाहट एक बीमारी नहीं, अपितु एक ऐसी पड़ता बुरी आदत है जो व्यक्ति को मानसिक तौर पर माताबीमार रखती है। आमतौर पर यह आदत व्यक्ति की तात्कालिक जिन्दगी के बीच घटित कमरे हो रही घटनाओं पर केंद्रित हो जाती है और वातावरण व्यक्ति धीरे-धीरे इसके व्यूह में घिर जाता है। वातावरण हकलाहट के शिकार ऐसे ही व्यक्तियों को इसकी गिरफ्त से मुक्ति दिलाने के क्षेत्र में चिकित्सीय 1986 से राजधानी दिल्ली में कार्य कर रही है एक संस्था ‘अदलखा स्पीच एण्ड हियरिंग क्लीनिक'। हैडॉ. संजीव अदलखा एवं सीमा अदलखा करनाहकलाहट से पीड़ित व्यक्तियों या बच्चों को किसी मानसिक और सामाजिक स्तर पर आत्मनिर्भर व्यक्ति बनाने का प्रयास करते हैं। स्पीच थैरेपी, साइको थैरेपी, ग्रप थैरेपी तथा मेन्टेनेन्स थैरेपी के मिश्रण से हकलाहट से मुक्ति दिलाई जा सकती है। प्रायः हकलाहट बचपन से ही शुरू पाता हो जाती है। वैसे तो पांच प्रतिशत बच्चे स्वयं |थोड़ा-बहुत अटकते हैं किन्तु एक प्रतिशत 1 उपर्युक्त बच्चे हकलाते ही रहते हैं। यह समस्या लड़कों , की अपेक्षा लड़कियों में कम देखने को मिलती * कि है जो 5:1 के अनुपात में होती है। यही नहीं, इसका सबसे ज्यादा प्रभाव मध्यवर्गीय और 6 हो उच्चवर्गीय परिवारों में आजकल पाया जा रहा है। गंवाए हकलाहट का कोई एक कारण नहीं होता। यह परिवार के तनावपूर्ण एवं अस्वस्थ वातावरण के फलस्वरूप भी उत्पन्न हो सकती है और 'किसी रोग के बाद भी तेज बखार जैसे टाइफाइड या मस्तिष्क ज्वर के होने के बाद भी बच्चे में हकलाहट उत्पन्न होने के मामले प्रतिबंधों प्रकाश में आए हैं। सिर में लगी भारी चोट भी बच्चे 'वाक्दोष को जन्म देती है। कुछ मनोवैज्ञानिक कारणों का भी बच्चों की वाक्क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। यदि घर का वातावरण कलहपूर्ण है, पूण 6 माता-पिता छोटे बच्चे के सम्मुख बड़े बच्चे को बर्बतापूर्ण मारते हों या किसी कारणवश कमरे में बंद कर दिया जाता हो तो इस भांति के वातावरण में बच्चे कछ रूक-रूक कर डर-डर कर बोलना आरम्भ कर देते हैं और वातावरण में बच्चे 'कुछ रूक-रूक कर धीरे-धीरे उनमें हकलाहट आ जाती है। चिकित्सीय भाषा में इसे 'साइकोसोमैटिक फैक्टर' या 'साइकोफीचर' का नाम देते हैं। अब तक सबसे खतरनाक कारण साबित हुआ है-हकलाने वाले व्यक्ति की बच्चे द्वारा नकल । करना। प्रायः यह देखा जाता है कि बच्चे अपने । । किसी सहपाठी या पास-पड़ोस में रहने वाले व्यक्ति की नकल शुरू कर देते हैं और परिवार । के लोग बड़े चाव से उसे सुनते हैं। ऐसे बच्चे " की उम्र 5-8 वर्ष की होती है। जब बच्चा १ इसलिए अपनी वाकक्षमता परी तरह विकसित नहीं कर वो पाता और हकलाने की नकल करते-करते • स्वयं हकलाने लगता है। उपर्युक्त कारणों को देखने से पता चलता है , कि हकलाहट कोई रोग नहीं, अपितु एक बुरी आदत है जो केवल वाचिकित्सा से ही ठीक पूर्णतया 6 हो सकती है। किसी क्लीनिक में बिना समय गंवाए जल्दी से जल्दी इलाज शुरू कर देनी उसे चाहिए। अदलखा स्पीच एण्ड हियरिंग क्लीनिक के डॉ. संजीव अदलखा एवं सीमा अदलखा इस संदर्भ में कहते हैं, जहां लोग अपने बच्चे के इस वाक्दोष को ठीक करने की बात सोचते हैं, वहीं वे बच्चे पर अपने प्रतिबंधों में कोई ढील नहीं देते जिसके कारण हाल बच्चे पर उसका प्रभाव बरकरार रहता है, ऐसे अभिभावक का काउंसिलिंग अति आवश्यक हो जाती है। जनता में जागरुकता लाने के लत को लिए डॉ. अदलखा ने इसी विषय पर एक पुस्तक भी लिखी है ‘हकलाना और आपका बच्चा' (प्रश्न-उत्तर) जिसके प्रकाशक हैं डायमंड पॉकेट बुक्स। वेबसाइड द्वारा देश-विदेश में हकलाहट से संबंधित जानकारी से लोगों को अवगत कराने में ‘अदलखा स्पीच एण्ड हियरिंग क्लीनिक' का बड़ा योगदान रहा है। जब कोई बच्चा वाक समस्या को लेकर आता है तभी स्पीच थैरेपिस्ट का काम शुरू होता है। सबसे पहले बच्चे के सांस, गले और जीभ की एक्सरसाइज कराई जाती है जिससे बोलते समय होने वाली परेशानी कुछ कम हो सके। इसे ‘प्ले थैरेपी' कहते हैं। इसके अलावा बच्चे के मां-बाप को भी सुझाव दिया जाता है। ग्रहण कर सके। इस पद्धति को ‘पेरेन्ट कि बच्चे के लिए घर में भी उचित शिक्षा साल की उम्र लांघ चुका है तो उसका इलाज काउंसिलिंग' कहते हैं। यदि बच्चा 10-11 क्लीनिक सिचुएशन में होता है। स्पीच थैरेपिस्ट हैं वहीं दूसरी ओर उसके भीतर आत्मविश्वास जहां एक तरफ हकलाहटपन का इलाज करते पैदा करते हैं। । । अंत में प्रत्येक शनिवार को ग्रुप मेंनटेन्स थैरेपी दी जाती है। इस थैरेपी का प्रयोग करने । से पूर्व तक व्यक्ति प्रवाहपूर्ण तरीके से बोलने लगता है किन्तु वह स्थायी अवस्था नहीं होती। । इसलिए मेंटेनेन्स थैरेपी दी जाती है। मेंटेनेन्स थैरेपी के बारे में डॉ. अदलखा का मानना है, कि जितने साल व्यक्ति हकलाहट के सम्पर्क में रहा है उसके एक चौथाई हिस्से की अवधि मेंटेनेन्स थैरेपी द्वारा उससे दूर करने के लिए तो चाहिए ही। डॉ. अदलखा दावा करते हैं कि मेंटेनेन्स थैरेपी करने वाले 97 प्रतिशत लोग पूर्णतया ठीक हो जाते हैं। इस थैरेपी में व्यक्ति का रोज क्लीनिक में आना जरूरी नहीं, सिर्फ उसे थैरेपिस्ट के संपर्क में रहना होता है और जब भी कोई कार्यक्रम हो उसमें भाग लेना होता है। सप्ताह के किसी निश्चित दिन ऐसे लोगों को कहीं बाहर ले जाया जाता है। कभी नाटक, कविता पाठ, संगीत-नृत्य आदि में सम्मिलित कराया जाता है तो कभी मैच आयोजित कर बारी-बारी सभी को आंखों देखा हाल माइक पर सुनाने से आत्मविश्वास को है बढ़ावा मिलता है। हकलाहट से मुक्ति पाने का यही एकमात्र साधन है।