कुंभ पर्व के आदि प्रवर्तक महाविष्णु भगवान धन्वंतरि

कुंभ पर्व के आदि प्रवर्तक महाविष्णु                  भगवान धन्वंतरि


 • वैद्य ओम प्रकाश द्विवेदी


“कंभ पर्व' शब्द से ही यह भाषित होता है कि यह पर्व कुंभ अर्थात् कलश से संबंधित है। विश्व का सबसे बड़ा विशाल धार्मिक आयोजन जिसमें लाखों-करोडो श्रद्धालु एक स्थान पर एक ही समय भाग लेते हैं। यह ऐसा एक-मात्र आयोजन है जिसमें साधु-संन्यासी से लेकर गृहस्थ, गरीब, अमीर, व्यापारी, बाल-वृद्ध और प्रशासन तथा सभी धर्मों के लोग इस पर्व में आस्था और श्रद्धा के साथ भाग लेते हैं। इस आयोजन को सफल बनाने तथा कानुन व्यवस्था को बनाये रखने हेतु प्रदेश सरकार कई वर्ष पूर्व से ही इसकी तैयार करती है। इसमें भाग लेने वाले व्यक्ति भारत ही टी निटेशों से भी बडी संख्या में पहुंचते हैं। बहत से लोग तीन मास पर्व ही कभ पर्व के दौरान कल्पवास करते हैं और नित्य प्रति नर्णन प्रत्यंग और संत सेवा में समय व्यतीत करते हैं। कुभपर्व में नदी, तीर्थ, ग्रह, संत और गहस्थ इन पाँचों का एक स्थान पर समागम कुंभपर्व है पर्व है इसी प्रकार इस शरीर रूपी कभ में मनरूपी सर्य ईश्वर की दिशा उत्तरायण में आकर वद्धिरूपी बृहस्पति सहित पांचों ज्ञानेन्द्रिय और पांचों कर्मेन्द्रियों तथा मन सहित जब ईश्वर रूपी बकी लगाने लग जाए तब वहीं मनुष्य के जीवन का कभ स्नान पर्व है, वही मोक्ष का हेतू है। विष्णु पुराण में कभ स्नान की महिमा रोग गरि । लक्ष प्रदक्षिणाभूमेः भस्नाने तत्मंगलम॥ अर्थात् :- हजार अश्वमेघ यज्ञ, सौ बाजपेय यज्ञ ( पृथ्वी की परिक्रमा करने से जो है उसे व्यक्ति कुंभ पर्व में स्नान मात्र से प्राप्त कर लेता है। तो आइये जाने कि कुंभ पर्व का इतना बड़ा महत्व क्यों है? । इससे संबंधित एक पौराणिक अख्यान प्रसिद्ध है कि एक बार देव दानव में अपने-अपने वर्चस्व की लड़ाई लगभग 100 वर्षों तक चलती रही, इसमें देवता लोग लगभग दानवों से कमजोर पड़ रहे थे। देवताओं को ऐसा लगा कि जैसे अब उनकी पराजय निश्चित है, तो उन्होंने देवगुरु बृहस्पति और विष्णु के परामर्श से दानवों से संधि कर ली और कहा हम दोनों व्यर्थ लड़ाई झगड़े में अपनी-अपनी शक्ति बरबाद कर रहे हैं यही शक्ति समुद्र मंथन में लगायें तो हम लोग समुद्र से अमृत प्राप्त कर अमर हो सकते हैं। दानव लोग देवताओं की चतुरता को समझ नहीं सके और इसके लिए तैयार हो गये। अंततः अमृत कुंभ की प्राप्ति के लिए क्षीर सागर में मन्दराचल पर्वत की मथानी और वासुकि नाग की रस्सी बनाकर समुद्रं मंथन का कार्य प्रारंभ हुआ। देवता अपनी चतुराई से वासुकी की पूंछ पकड़कर खींचते थे और दानव उनके मुंह की तरफ लगे थे जिससे वासुकी की हुंकार से बहुत नग थे जिसस वासुका का फुकार स बहुत से दैत्य मर गए और जो बचे वे काले पड़ गये। इस अवसर पर भगवान विष्णु ने कच्छप रूप धारण करके अपनी पीढ़ पर मंदराचल पर्वत को समुद्र में संभाले रखा अन्यथा वह पानी में कैसे समुद्र में संभाले रखा अन्यथा वह पानी में कैसे टिकता।


 



    इस प्रकार जब काफी समय तक सम् टिकता। इस प्रकार जब' काफी समय तक समुद्र मंथन हुआ तो उसमें से 14 रत्न निकल। आ, माण, रम्भा, धारुणा, आमय, शंख, गजराज, धेनु, धनुष, शशि, कल्पतरू, धन्वन्तरि, विष, वाज। जिसमें सर्वप्रथम विष (कालकूट) निकला फिर लक्ष्मी, कौस्तुभमणि, कल्पवृक्ष, सुरा, चन्द्रमा, कामधेनु, ऐरावतहाथी, सप्तमुखअश्व, प्तिमुखअश्व, पांचजन्यशंख, रंभादि अप्सराएं, गाण्डीव धनुष, धन्वन्तरि वैद्य और अंत में अमृत कलश। शास्त्रों में वर्णन है भगवान धन्वन्तरि स्वयं अमृत कलश अपने हाथ में लेकर प्रकट हुए। देवताओं क सकत पर इद्र का पुत्र जयत भगवान धन्वन्तार के हाथ से अमृत कलश को छान कर तेजी से भागा। दैत्यों ने उसका पीछा किया। इस प्रकार अमृत कलश को प्राप्ति के लिए देवता और दानवों से भयंकर युद्ध छिड़ गया और यह युद्ध बारह दिव्य वर्ष अर्थात् मनुष्यों के बारह वर्षों तक चला। इस युद्ध के दौरान अमृत कलश की छीना-झपटी में अमृत की कुछ बूंदें टपक गयीं। वे बूंदे जहां-जहां गिरीं वहां-वहां कुंभ पर्व का आयोजन किया जाता है। तत्पश्चात भगवान ने मोहिनी अवतार धारण कर अमृत देवताओं में और सुरा दानवों में बांटकर युद्ध समाप्त करा दिया। अमृत कलश लेकर जयन्त देव लोक और पृथ्वी लोक तक भागा था उस समय कलश से 12 स्थानों में अमृत की बूंदें गिरी थीं जिसमें आठ स्थान देव लोक में हैं और चार स्थान मृत्युलोक में हैं। वे चार स्थान-प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक है। इन चारों स्थानों में प्रत्येक 12 वर्ष (12 वर्ष तक युद्ध चला था इसलिए) में कुंभ पर्व का आयोजन होता है और छह वर्ष में अंर्धकुंभ होता है जबकि अर्धकुंभ का वर्णन शास्त्रों में कही नहीं है। पौराणिक मतानमार पौराणिक मतानुसार अमृत कलश को लेकर जब इन्द्र पुत्र भाग रहा था उस समय कुंभ की रक्षा के लिए बहस्पति, सर्य व चन्द्रमा ने विशेष सहायता की थी। चन्द्रमा ने अमत को कभ से छलकने से, सूर्य ने कुंभ को फूटने से और बहस्पति ने असरों द्वारा छीने जाने से तथा शनि ने देवराज इन्द्र के भय से अमन कध की प्रथा की थी। इसलिए कभ महापर्व का चे और बड़पति तीनों ग्रहों के विशेष योग में मनाया जाता है। । चार प्रमुख तीर्थों में कुंभ पर्व का समय : 1. हरिद्वार :- जब बृहस्पति कुंभ राशि में सूर्य = या पर महाकुंभ (पूर्णकुंभ) होता है। , उज्जैन, जब बहस्पति सिंह राशि में और सर्य मेष राशि में आता है तब उज्जैन में क्षिप्रा. । कहते हैं। 3. नासिक :- जब बृहस्पति सिंह राशि और सूर्य की स्वगृही होकर सिंह राशि में आ जाता है। तब नासिक में गोदावरी तट पर कभ होता है।। 4. प्रयाग :- जब बृहस्पति वृषभ राशि यानि कि चन्द्रमा की उच्च राशि में और सर्य मकर राशि में हो तब प्रयाग में त्रिवेणी के तट पर महाकुंभ का आयोजन होता है। परंपरा के अनुसार हरिद्वार और प्रयाग में छह वर्ष बाद अर्धकुंभ और 72वें वर्ष में महाकुंभ होता है, उज्जैन और नासिक में 12वें वर्ष कुंभ होता है अर्धकुंभ नहीं होता है। कुंभ पर्व पर ज्योतिषीय अवधारणा :- अतः ज्योतिषीय गणना के अनुसार बृहस्पति को एक राशि में लगभग एक वर्ष का समय लगता है। इस प्रकार बारह राशियों में परिभ्रमण करते-करते 4332.5 दिन लगते हैं जो 12 वर्ष से 48 दिन कम होते हैं चूंकि कुंभ का आयोजन 12 वर्ष में होता है तो इस प्रकार सातवें और आठवें कुंभ के मध्य लगभग एक वर्ष का अंतर उत्पन्न हो जाता है। आठवें कुंभ तक पहुंचते-पहुंचते 96 वर्ष का जियले समय लग जाता है और यही कारण है कि हर के हर आठवां कुंभ बारह वर्ष के बजाय 11वें वर्ष में ही हा आयोजित हो जाता है। इसी प्रकार आगामी कुंभ भी 11वें वर्ष में ही आयोजित होगा। बीसवीं शताब्दी का तीसरा कुंभ सन् 1927 में पड़ा था। अतः सामान्यतः इसके बाद का अगला कुंभ का , अवसर 1939 में आना चाहिए था लेकिन किसी बृहस्पति की गति गणना के कारण यह सन् 1038 में ही पड़ गया था। ऐसे ही 2010 में हरिद्वार में कुंभ हुआ। इसके बाद का कुंभ 11वें वर्ष सन् 2021 में ही आ रहा है। लेकिन एक बात जरूर है कि सर्य उत्तरायण में जब होता है तभी यह स्थिति बनती है। शास्त्रों में ऐसी मान्यता है कि जब हरिद्वार में गंगाजी नहीं थी तब वहां पर मात्र ‘ब्राकड' था और उस समय हरिद्वार को मायापुरी कहा जाता था, अमृत कलश को सर्वप्रथम यहीं ब्रह्मकुंड पर रखा गया था, इसलिए कुंभ महापर्व पर ब्रह्मकुंड में स्नान का विशेष महत्व है। प्रयाग राज के कुंभ में त्रिवेणी में स्नान का महत्व है। मिला कुंभ स्नान पर वैज्ञानिक मत :- ताजा जानकारी के अनुसार अमेरिका के कुछ वैज्ञानिकों ने सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति की पर्वकालीन (कुंभ में बृहस्पति की) स्थिति पर अनुसंधान किया है तो उन्हें आश्चर्यजनक जानकारी प्राप्त हुई कि इस स्थिति काल में गंगा ग्लेशियर का जल जितना शुद्ध होता है उतना 12 वर्षों के अन्य समय में कभी नहीं अतः इस दौरान कुंभ पर्व वाले तीर्थों की गंगा आदि नदियों के जल में निश्चित रूप से अमृतत्व की उत्पत्ति हो जाती है। कुछ विद्वानों का मत है कि उज्जैन के चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य ने चारों तीर्थों का जीर्णोद्धार कराया और कुंभ महापर्व का शुभारंभ किया जब कि कुछ विद्वानों का मत है कि आदि शंकराचार्य ने इन चारों तीर्थों में महाकुंभ पर्व का आयोजन प्रारंभ कराया। सत्यता जो भी हो, यह आयोजन मेवी तुलसी अत्यन्त प्राचीन है और इसके आदि प्रर्वतक रही महाविष्णु के अवतार भगवान धन्वन्तरि ही हैं। पब्लिक जिनकी कृपा से अमृत कलश का प्रादुर्भाव हुआ, स्थिति अन्यथा न होता अमृत कुंभ और न होता कुंभ इतने पर्व। मनुष्य इस प्रकार कभ महापर्व का प्रादुर्भाव हुआ और सात्विक यह अपने क्रम पर आयोजित होता आ रहा है। सभी इसमें विभिन्न संस्थाएं और अखाड़ों के शिविर के लगते हैं किन्त दुर्भाग्य है कि आयर्वेद का दरअसल जियले पत्रक तान धो स्थान फ़ि शिविर नहीं लगाया जाता। असल में यह कुंभ वैष्णव से पर्व वैद्य परंपरा का ही एक अंग है। आयुर्वेद ही पाठकों व्यक्ति को अमृतत्व प्रदान करता है और उस देना आयुर्वेद के आदि प्रणेता भगवान धन्वन्तरि हैं अनुसार किन्तु उनके उपासक वैद्य सुसुप्ति अवस्था में हैं। ग्रहण , किसी का भी ध्यान इधर नहीं है कि इतने बड़े संस्कार कुंभ महापर्व के प्रवर्तक वैद्यों के देवता धन्वन्तरि पहला १ थे इसका लाभ वैद्यों को मिलना चाहिए और भोजन आयुवर आयुर्वेद की संस्थाओं को इस पुनित पर्व में लकड़ी करना बढ़चढ़ कर भाग लेना चाहिए। कुंभ पर्व में अखाड़ों का शाही वर्चस्व :- कहते कुंभ स्नान परंपरा में शाही स्नान का विशेष दूसरा महत्व है। शाही स्नान में सर्वप्रथम साधु-संत वर्ष स्नान करते हैं किन्तु पता नहीं यह परंपरा कैसे भरकर चल पड़ी, इसमें तो सर्वप्रथम धन्वन्तरि के परम पड़ते भक्त वैद्यों को यह स्थान मिलना चाहिए था। संभव है साधु सम्प्रदाय औषधि ज्ञाता रहे होंगे उसे इसलिए उनको प्रथम स्नान करने का अधिकार तीसरा मिला हो या उनके दबंगी स्वभाव के कारण जो अवधि भी हो। शाही स्नान निश्चित रूप से अत्यंत परोसना दर्शनीय होता है। इसमें प्रायः 13 अखाड़े की सर्वप्रथम स्नान करते हैं जो मुख्य हैं : 1. चलना तपोनिधि निरंजनी अखाड़ा पंचायती, 2. पंचायती इस आनन्द अखाडा, 3. पंचदशनाम जूना अखाडा, चतुर्थ 4. पंच आहृवान अखाडा, 5. अग्नि अखाडा, 6. अवधि पंचायत अखाड़ा महानिर्वाणी, 7. पंच अटल वह अखाडा, 8. निर्वाणी अखाडा, 9. दिगंबर तीर्थो अखाड़ा, 10. निर्मोही अखाड़ा, 11, पंचायती केवल अखाड़ा, 12. उदासीन पंचायती अखाड़ा और चलाएं13. निर्मल पंचायती अखाड़ा। पंचम इन सभी अखाड़ों की झांकी अपनी-अपनी सीमा वेशभूषा और साजो-सामान व गाजे-बाजे के पहुंचतेसाथ हाथी, ऊंट, घोडे, पालकी आदि पर बैठकर है अखाड़े के प्रमुख स्नान के लिए निकलते हैं तब कहीं यह अद्भुत नजारा देखने योग्य होता है। ऐसा उस लगता है जैसे भगवान शिव की बारात निकल आहार-विहार एवं स्वास्थ्य विशेषांक प्रर्वतक रही हो। लेकिन कभी-कभी नागा साधु प्रशासन, । पब्लिक से या आपस में जब भिड़ जाते हैं तब हुआ, स्थिति अत्यंत भयावह बन जाती है। अन्यथा कुंभ इतने बड़े साधु-संतों की जमात को देखकर मनुष्य के मन में स्वाभाविक रूप से श्रद्धा और और सात्विक भाव उत्पन्न हो जाता है। मेले में इन । सभी अखाड़ों का प्रतिनिधित्व वैष्णव अखाड़ा शिविर के साध करते हैं। वही सर्वप्रथम स्नान करते हैं। दरअसल वैष्णव संन्यासियों का अपना विशेष स्थान है कुंभ वैष्णव संतों के पांच प्रमुख संस्कार :पाठकों की जानकारी के लिए मैं यहां यह बता उस देना चाहता हूं कि वैष्णव अखाड़े की परंपरा के अनुसार जब कोई नवागत संन्यासी शिष्यत्व । ग्रहण करता है तो उस शिष्य के सर्वप्रथम पंच बड़े संस्कार किए जाते हैं। धन्वन्तरि पहला संस्कार :- उसे तीन वर्ष तक मंदिर और और भोजन के छोटे-छोटे पात्र धोने को मिलते हैं, लकड़ी आदि साम्रगी एकत्र करना और पूजा पाठ करना आदि। उसे सधुकखड़ी भाषा में ‘छोरा, कहते हैं। विशेष दूसरा संस्कार :- इसमें भी शिष्य की अवधि 3 संत वर्ष की होती है। इस दौरान उसे कुएं से पानी कैसे भरकर लाना पड़ता है, बड़े-बड़े बर्तन मांजने परम पड़ते हैं, भोजन बनाना पड़ता है और पूजा पाठ । भी नित्य नियम से करना पड़ता है। इस दौरान होंगे उसे ‘वंदगीदार' कहते हैं। अधिकार तीसरा संस्कार :- इसमें शिष्य को 3 वर्ष की अवधि तक मूर्तियों को भोग लगाना, भोजन अत्यंत परोसना जो दोपहर में बनता है, निशान या मंदिर अखाड़े की पताका को लेकर संत मंडली के आगे-आगे . चलना और नित्य नैमित्तिक पूजा-पाठ करना। पंचायती इस अवधि में उसे 'हुड़दंगा' कहते हैं। , चतुर्थ संस्कार :- इस अवस्था में 3 वर्ष की . अवधि तक शिष्य को अब अवसर मिलता है कि अटल वह गुरू-स्थान के बाहर भारतवर्ष के समस्त दिगंबर तीर्थो धर्म स्थानों का अच्छी तरह भ्रमण करें। पंचायती केवल भिक्षावृत्ति से ही अपनी आजीविका और चलाएं। इस अवधि में उसे 'नागा' कहा जाता है। पंचम संस्कार :- वैसे तो इस संस्कार की कोई अपनी सीमा नहीं है क्योंकि इस अवस्था में पहुंचते-पहुंचते उसे परम वैराग्य प्राप्त हो जाता बैठकर है जो स्वाभाविक है। अब वह स्वतन्त्र रूप से तब कहीं भी भ्रमण कर सकता है। इस अवस्था में ऐसा उस साधु को ‘अतीत' कहा जाता है। निकल संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास ने ऐसे संत के विषय में 'वैराग्य संदीपनी' में कहा है- अति शीतल, अतिही अमल, सकल कामना हीन। तुलसी ताहि ‘अतीत, गनि वृत्ति सांन्ति लय-लीन॥ अतः आज भी साधु समाज को इन पांचों संस्कारों की महती आवश्यकता है। आजकल जो संत अखाड़ा, आश्रम, मठ या किसी संघ के प्रमुख होते हैं उन्हें श्रीमहन्त या अखाड़ा प्रमुख से जाना जाता है। उनके आदेश को उनके अखाड़े से जुड़े लोग मानते हैं। शैव और वैष्णव वैरागियों के झगड़े :- मेले में कभी-कभी भयावह स्थिति तब पैदा हो जाती है जब शैव और वैष्णव संत प्रथम स्नान की होड़ को लेकर आपस में लड़ जाया करते हैं तब बहुत से निर्दोष श्रद्धालु इसका शिकार हो जाते हैं। प्रायः नागा साधु आदि गांजा, चरस, बीड़ी, सिगरेट, चिलम आदि का सेवन बहुतायत में करते हैं और ज्यादा समय आग (धूना) तापते रहते हैं। समाज से वे प्रायः अलग-अलग रहते हैं इसलिए उनके स्वभाव में उग्रता, क्रोधावेश अधिक होता है। उनमें सत्संग और स्वाध्याय की कमी होने से धैर्य समाप्त हो जाता है। यही लोग बहुत जल्द लड़ाई-झगड़े पर उतर आते हैं। ऐसा भी नहीं है कि सभी साधु नशेड़ी है या स्वाध्याय सत्संग विहीन हैं जो ऐसे हैं वे लड़ाई-झगड़े मान अपमान से दूर रहते हैं। एक विदेशी लेखक कैप्टन फ्रांसिस रैपर ने कभ पर्व पर अपने एक लेख में लिखा है कि सन 1760 और 1796 में शैव और वैष्णव आपस में लड़ गये, बहुत से साधु संत अस्त्र- शस्त्र धारी थे। उनके सामने जो भी आया उसे वे काटते चले गये। इसमें 18000 वैष्णव संत मारे गये। मन 1006 में प्रयाग कभ मेले में भगदड मच गई जिसमें 10 लोग दबकर मर गये। सन् 1820 में हरिदार कभ मेले में भगदड़ मच गई थी जिसमें 485 लोगों की जानें गई थीं। एक बार प्रयाग कुंभ में जवाहर लाल नेहरू जी स्नान करने राध का टाशी बिगड़ गया और उस भगदड में बहुत से लोग मरे गए। कंभ में मुस्लिम शासक :- किसी भी शासक का शासनकाल रहा हो लेकिन कभ पर्व आबाधगति से सैदव सम्पन्न होता रहा जिसमें समय-समय पर विभिन्न संप्रदाय और मतमतान्तरों के लोग राजे-महाराजे आदि भाग लेते रहे हैं। लगभग 14वीं शताब्दी में जब क्रूर शासक तैमूरलंग कुंभ में भाग लेने आया तो हैरान भेरी तुलसी रह गया और उसने कोई उपद्रव नहीं किया। कामना लेकिन उसके दो वर्ष बाद हरिद्वार पर आक्रमण सांन्ति कर बहुत लूटपाट की। 17वीं शताब्दी में जहांगीर स्वयं कुंभ मेले में भाग लेने आया और उसकी पांचों देखरेख में कुंभपर्व सम्पन्न हुआ और औरंगजेब आजकल की कुदृष्टि से यह मेला बच गया। के कुंभ पर्व और हिन्दू शासक :- तीसरी शताब्दी प्रमुख में राजा ईसम सिंह के देखरेख में यह पर्व सम्पन्न उनके हुआ। कहते हैं कि महाराज विक्रमादित्य ने कुंभ पर्व का शुभारंभ कराया। कुछ लोगों का मत है मेले कि आठवीं शताब्दी में आदि गुरु शंकराचार्य ने जाती कुंभ मेले की परंपरा रखी। सातवीं शताब्दी में होड़ हर्ष के शासनकाल में शाही हुकूमत की बहुत देखभाल में मेला संपन्न हुआ। 15वीं शताब्दी में गुरु नानक देव जी महाराज ने , कुंभ पर्व में भाग लिया। इसके अतिरिक्त बौद्ध में और जैन संत भी इस मेले में भाग लेते रहे हैं। तापते यह मेला कब से प्रारंभ हुआ और किसने नींव हैं रखी यह विषय संदिग्ध है। लेकिन यह स्पष्ट है क्रोधावेश कि पहले के समय में मेले की सारी व्यवस्था की शासकों की ओर से की जाती थी और तत्कालीन लोग महाराज वहां स्वयं उपस्थित रहते थे। ऐसा कुंभ पर्व अंग्रेजी शासन काल में :- ब्रिटिश स्वाध्याय शासन काल में कुंभ पर्व का वर्णन सन् 1796 मान का प्राप्त होता है। इस मेले में अंग्रेजी शासक कर वसलते थे। उनके जमाने में कई बार साधु हिंसा ने पर उतर आए। एक बार उदासीन अखाड़े के साधु इतना नाराज हो गए कि उन्होंने तलवारें वैष्णव निकाल ली और रास्ते में जो भी आया उसे मार - दिया। फिर कैप्टन मुरी ने फौज की सहायता से वे इस हिंसा पर काबू पाया। ऐसी हिंसाओं को मारे देखकर अंग्रेज घबरा गये मेला पर्व आने पर भगदड उनके हाथ पांव फूल जाते थे। एक बार एक सन् ईसाई पादरी मेले में धर्म परिवर्तनकारी भाषण दे पट ईसाई पादरी मेले में धर्म परिवर्तनकारी भाषण दे थी रहा था उसे तत्काल अग्रेजों ने गिरफ्तार कर बार वापस स्वदेश भेज दिया। करने सन् 1906 में जब प्रयाग में कुंभ पर्व चल रहा बिगड़ था तब प्रिंस आप वेल्स भारत की यात्रा पर आए किन्तु वे चाहकर भी हिंसा के भय से कुभ मल शासक में सम्मिलित नहीं हुए और वापस ब्रिटेन चले टिन चल पर्व गए। अंग्रेजी के समय में झगड़ का सबसे बड़ा जिसमें कारण उनकी कुंभ के स्नान मुहूर्त और साधुओं और के मान सम्मान के बारे में नासमझदारी मुख्य भाग कारण थी। कुछ विद्वानों का मत है कि कुंभ पर्व क्रूर की प्राचीनता राम के जमाने से हैं स्वयं राम, स्वयं राम, निश्चित हैरान लक्ष्मण भी कुंभ स्नान में भाग लेते थे। भीष्म आहार-विहार किया। पितामह भी कुंभ महापर्व आक्रमण पाण्डवों ने भी कुंभ स्नान जहांगीर इससे वह विदित होता है उसकी प्राचीन पर्व है और इसकी महत्ता औरंगजेब प्रत्येक मनुष्य को प्रयत्न करके आहार-विहार एवं स्वास्थ्य विशेषांक किया। पितामह भी कुंभ महापर्व में भाग लेते थे। आक्रमण पाण्डवों ने भी कुंभ स्नान में भाग लिया था। जहांगीर इससे वह विदित होता है कि कुंभ पर्व अत्यंत उसकी प्राचीन पर्व है और इसकी महत्ता विश्वविदित है। औरंगजेब प्रत्येक मनुष्य को प्रयत्न करके एक बार अवश्य कुंभ पर्व में स्नान करना चाहिए। शताब्दी कैसे करें कुंभ पर्व में स्नान और दान :सम्पन्न ब्रह्ममुहूर्त में उठकर शौचादि कर्म से निवृत्त कुंभ होकर गंगादि पवित्र नदी में जाकर जल के मध्य है में खड़े होकर दोनों हाथों से सिर पर कुंभमुद्रा ने बनाए जैसे कि आप किसी कुंभ को सिर पर से में उसका अमृतमय जल डाल रहे हों ऐसी भावना की करें और निम्न मंत्र संभव हो तो पढ़े :देव दानव मथ्यमाने महोदधौ, उत्पन्नोऽसि ने तदा कुम्भ विधूतो विष्णुना स्वयम्। बौद्ध त्वत्तोये सर्वतीर्थनि देवाः। सर्वे त्वयि स्थिताः। । त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणाः नींव प्रतिष्ठिताः॥ शिवः स्वयं त्वमेवासि विष्णुस्त्वं है च प्रतापतिः।। व्यवस्था आदित्या वसवो रूदा विश्वेदेवाः सपैतृकाः॥ तत्कालीन त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि यतः कामफल प्रदाः। त्वत्प्रसादादिमं स्नानं कर्तुमीहे जलोद्भवः॥ ब्रिटिश सान्ध्यिं कुरू में देव प्रसन्नो भव सर्वदाः॥ 1796 यदि यह मंत्र पूरा न बोल सकें तो ॐ कुंभाय कर नमः, ॐ श्री विष्णवे नमः, ॐ श्री धन्वन्तरये हिंसा नमः, ॐ श्री गुरुवे नमः, ॐ गंगाय नमः, ॐ के सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः, ॐ सर्वेभ्यो पितृभ्यो नमः। तलवारें आदि का उच्चारण करते हुए पांच, सात या मार उससे अधिक डुबकी लगा सकते हैं। तदुपरान्त से गंगा, पितृ व सूर्य को अर्घ्य दें, तर्पण करें और को स्वच्छ वस्त्र धारण कर एक, चार, ग्यारह, आदि पर यथा शक्ति संख्या में स्वर्ण, चांदी, पीतल या एक ताम्र के कलशों में घत भरकर वस्त्र, फल, गुड, दे पट दे एवं दक्षिणा रखकर संकल्प सहित किसी ब्राह्मण कर को दान कर दें। यह घतकभ दान वस्त्र, आभषण के सहित देने से सैकड़ों गौदान का फल प्राप्त रहा होता । आए दक्षिणा सहित भोजन कराने से पित संतष्टि होती मल है। साथ ही गंगाजी में दीपदान भी करना चाहिए। चले नटा चल तदुपरान्त गंगाजी की पुनः स्तुति करके अपराध बड़ा था और पापण शाज्ञा लागि साधुओं मंत्र - ॐ नम: शिवायै गट मै शिवदायै नमो मुख्य नमः। 7 नमः। नमस्ते विष्णुरुपिण्यै ब्रह्ममूर्यै नमोऽस्तुते।। पर्व इस प्रकार कुंभ महापर्व में स्नान दानादि से , , निश्चित ही भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है।।