मर्म चिकित्सा : एक परिचय

                   मर्म चिकित्सा : एक परिचय 


मर्म (Vital Parts) चिकित्सा भारत की अति 'प्राचीन विद्या रही है। आयुर्वेद से पहले जून-जुने इसका प्रचलन था। युद्ध में इसका प्रयोग होता रहा है। सुश्रुत ने शरीर का वर्णन करते हुए ‘मर्म निर्देश शारीरम' का वर्णन अपने ग्रंथ में किया है, जिसमें शरीर के उन नाजुक बिंदुओं की चर्चा की है जिन पर चोट लगने पर मृत्यु तक हो जाती । । है। उन्होंने 107 मर्म बिन्दुओं की चर्चा की है। 'इनके दबाव विशेष से रोगों उपचार किया जा । सकता है। यह एक विज्ञान है विदेशियों ने इसे नया रूप एक्यूप्रेशर एक्युपंचर आदि नामों से 'पकारा है। मर्म चिकित्स ईश्वरीय विज्ञान है। चमत्कार नहीं वेदों में इस विज्ञान के पोत में । उपलब्ध है। महत्व :- 1. मर्म चिकित्स करोड़ों वर्ष पुरानी हैं। पर आज भी जिंदा है और उपादेय हैं। आज !* इसकी जरूरत है इसका बड़ा लाभ माना है। ।। ' '2. मर्म चिकित्सा शरीर की नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक ऊर्जा में बदल देती है। |3. मर्म चिकित्सा तथा दु:खात्मक अनुभूति को सुिखात्मक अनुभूति में बदल देती है। 4. स्वमर्म चिकित्सा व मर्म चिकित्सा द्वारा सारी शारीरिक ऊर्जा का नियामन सम्भव है। * मर्म चिकित्सा दैनिक कार्यों से उत्पन्न रोग का प्रतिकार करती है। जैसे- हाथ-पैर का दर्द, |कमरदर्द, जकड़न, संधिशोथ, पेशियों का खिंचवा, रीढ़ व स्नायु पर पड़ने वाले दबाव से उत्पन्न परेशानियां। 16. नियमित स्वमर्म चिकित्सा आसान, प्राणायाम, एरेबिक्स सहित अन्य सभी व्यायामों का लाभ देती है। जैव रासायनिक परिवर्तन स्वमर्म । चिकित्सा से कुछ ही सैकेण्डों में हो जाते हैं। ।। 7. स्वमर्म चिकित्सा को व्यायाम की सबसे 1 सरलतम विधि व सूक्ष्यमर्म मार्ग कहा जाता है।'' चिकित्सा मर्म चिकित्सा द्वारा की जा सकती है।।।9. मर्म चिकित्सा लगभग 50% आवश्कताओं की पूर्ति करने में सक्षम है। '10. मर्म चिकित्सा में सर्वजन हिताय, सर्वजन सिद्धासनसुखाय, समभाव की लोक मंगलकारी भावना भेवी तुलसी 8, शरीर का जीजावान बनाने व वामन रागा का 'निहित है। ।इससे व्यक्तिगत पारिवारिक, सामहिकराष्ट्रीय तथा वैश्विक स्वास्थ्य लाभ का मार्ग खलता है। । कत्सा सार्वभौमिक अस्तित्व वाली । चिकित्सा पद्धति है। मर्म चिकित्सा अत्यन्त 'मानवीय, नि:शुल्क, सर्व सुलभ और व्यापक । रूप में सर्वमान्य के लिए उपयोगी है।



मर्म चिकित्सा इन रोगों में कारण :- 1. रीढ़ * दोष, 2. मेरु रज्जू आघात, 3. सायटिका, 4. संकुचित कंधे, 5. ट्रामेटिक परसिस, 6. पैराप्लीजिया, 7. कार्पल टलन सिण्ड्रोम, । 8. प्रालेप्स इन्टर वर्टिकल डिस्क, 9, ऑस्टियों आर्थराइटिस, 10, रूमे टाइड आर्थ राइटिस!!! 11. टार्टिकोलिस, 12. सर्वाइकल, 13. स्पोण्डी ला सि स, 14.हि प ट म ग ली. । '15. स्पीलीनोमेगाली,16. क्रोनिक पैनक्रिये टाइटिस, 17, माइग्रेन |18. फेसियल पेरेसिस |19. टिटिनस आदि।।। धातभेद से मर्मों के प्रकार :- 107 मर्म पंचात्मक होते हैं। (क), मांसमर्म :- तलहृदय, इन्द्रवस्त, गुदा, स्तन रोहित। (ख), सिरा मर्म :- नीला, धमनी, मातृका, |श्र |श्रृंगाटक, अपांग, स्थपनी, फणा, स्तनमूल, अपलाप इटस नाशि लोहिताक्ष, उर्वी। । |(ग). स्नायुमर्म :- आणी, विटप, कक्षाघर, कर्च सिर, वस्ति, क्षिप्र अंस, विधुर, उत्क्षेप। * (घ). अस्थिमर्म :- कटिकतरूण, नितम्ब, । अंसफल, शंख। । । (ङ). संधिमर्म :- जानु, कर्पूर, सींत, अधिपति, गुल्फ, मजिबंद्य, कुकुन्दर, आवर्त, कृकाटिका, ' मूर्धा, जिहवाबंध, कंठ, हृदय, नाभि, वास्ति, गुदा, । ।। योगासनों का मर्मों पर प्रभाव :- 18 योगासनों से मर्म स्वतः दबते हैं और स्वास्थ्य का रक्षण करते है। ये योगासन है। पद्मासन, सिद्धासन, सर्वांगासन, हलासन, मत्स्यासन, पवनमुक्तासन, भुजंगासन, धनुरासन, चक्रासन, _|महामये कहलाते हैं। । सुप्तकटि, चक्रासन, अर्धमत्स्येद्रासन, योगमुद्रासन, गोरक्षासन, गोमुरवासन, मयूरासन, वज्रासन, सुप्तवज्रासन तथा शवा प्राणायाम का मर्मों पर प्रभाव :- भास्त्रिका, बाहरी कुभंक, अनुलोम-विलोम, भ्रामरी, सूर्यभेदी, चन्द्रभेदी, उज्जायी, शीतली, सीत्कारी, कपालभाति के अभ्यास के सभी सक्रिय होते है। कपालभांति में 15 श्वास एक मिनट में फेके। । एक विशेष प्राणायाम, जिसे मृत्युजंय प्राणयाम । कहते हैं यह प्राण शक्ति को बनाए रखने में । गयक है व सिहांयन में बैठकर किया जाता है।। । षट्चक्र और मर्म :- मूलाधार चक्र (गुदामर्म), स्वाधिष्ठान चक्र (वस्ति मर्म), मणिपुरक, (नाभि मर्म), अनाहत चक्र (हृदय मर्म), विशुद्धि चक्र (मातृका व कंठ मर्म)! आज्ञाचक्र (स्थपनी मर्म), सहस्रार चक्र (अधिपति मर्म) प्रभावित होते हैं। । । मुद्रा खेचरी व ध्यान :- 25 मुद्राएं जिनका धेरण्ड संहिता में वर्णन किया गया है। मर्मों को प्रभावित करके रोगों को ठीक करने में मदद |मर्म चिकित्सा का उद्देश्य और विधियां :मर्म चिकित्सा का मुख्य ध्येय है स्वास्थ्य की रक्षा करना, आत्म कल्याण करना, तथा लोक कल्याण करना रोगों को नष्ट करना, नित्य मर्मों का स्पर्श व ध्यान करना। । विधियां :- हृदय व कर न्यास करना, मंत्रों द्वारा देवताओं से प्रार्थना व कामना करना। दुर्गासप्रशती के आधार पर ऐं हीं क्लीं चामुण्डायै विच्चें मत्रं द्वारा न्यास करना मृत्युजंय मंत्र द्वारा ध्यान करना, रूद्राक्ष पहनना, अगूंठेदार खड़ाऊ पहनना, तिलक लगाना, नाभि में तेल लगाना, मर्म स्थलों पर बादाम रोगन लगाना मल-मूत्र त्याग के समय जनेऊ दायें कान पर टांगना, स्त्रियों को बिन्दी, मांग में सिंदूर लगाना, पुरुषों द्वारा चोटी रखना, वज्रासन में बैठना अंगूठे व तर्जनी से 8 सैकेण्ड तक मर्म को 16 बार दबाना आदि कुछ घरेलू मसालों या आयुर्वेद की जड़ी-बूटी का सेवन।।