रेकी चिकित्सा

 


                                                रेकी चिकित्सा 


भारतीय योग की स्पर्श चिकित्सा प्रणाली को जापान में रेकी के रूप में जाना और विकसित किया गया। जापानी शब्द ‘रेकी' में 'रे' का अर्थ है ‘विश्वव्यापी' तथा 'की' का अर्थ है ‘जीवनीशक्ति'। प्राचीन काल में भारत में इसे न'। चीन काल में भारत में इसे प्राण चिकित्स के नाम से जाना जाता था। ऋषि-मुनि अपान तथा प्राण को सम करके समाधि अवस्था तक पहुंच जाया करते थे। इस बात की चर्चा भगवद्गीता में निम्न प्रकार से की गई है - ‘‘स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे ध्रुवोः।। प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तर । चारिणो।'' (गीता-5/27 ) बाह्य अंगों, चक्षु तथा भूमध्य को छूतकर और नासिका में विचरण करता हुआ प्राण और अपान को सम करके मोक्ष परायण मुनि मुक्त हो जाता है। सही मायने में रेकी अपना तथा प्राण को सम करने की प्राचीन भारतीय विधि ही है। आज यह चिकित्सा विधि भारत में ही नहीं बल्कि अन्य देशों में भी जनप्रिय हो रही है। यह एकदम सरल तथा लगभग नि:शुल्क चिकित्सा पद्धति है। एक बार इसे रेकी-आचार्य से सीखने के पश्चात् हर व्यक्ति स्वयं कर सकता है तथा अपने इर्द-गिर्द के बन्धु-बान्धवों को भी लाभ पहुंचा सकता है। कळ लोग इसे रहस्यमयी आध्यात्मिक क्षेत्र चिकित्सा भी कहते हैं। भारतीय मनीषियों ने प्रकति में विद्यमान भाातक एवं सूक्ष्म शक्तियों, जैसे- जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, सूर्य, ग्रह, प्राण, न्युट्रॉन, प्रोटॉन, इलैक्ट्रॉन आदि सभी को आदर देते हुए देवता कहा और उनकी उपासना हेत उनके चित्र, मूर्ति एवं कलाकृतियों का निर्माण किया गया तथा इन सबको अध्यात्म में शामिल कर लिया, क्योंकि प्राकृतिक शक्तियों का अध्ययन ही तो अध्यात्म का विषय है। प्राण चिकित्सा सूक्ष्म विद्या होने के कारण रहस्यमयी लगती असंख्य आकाश गंगाओं में अनन्त तारे अर्थात् सूर्य स्थित है।



ये सारी गंगाएं 20,000 मील प्रति सेकेण्ड की गति से अनन्त की ओर आदि काल से ही भाग रही है, जिससे गतिज विकसित ऊर्जा उत्पन्न होती है। इस शक्ति को दर्गा (दरगामिनी शक्ति) का प्रतीकात्मक नाम दिया गया। ये सभी सूर्य, हमारे सूर्य की भांति ही, गयी। ये सभी सर्य हमारे सर्य की भांति ही इसे नाभिकीय भट्टियां ताप, प्रकाश एवं चुम्बकीय इसे शिलीय अधिना पण पतंजलीय । तरंगों का सतत विकिरण करते हैं। सभी प्राणी शक्ति के इस महासागर में ही निवास करते हैं इस और आदान-प्रदान क्रिया सतत एवं अनवरत से रूप से चलती रहती है। इस निरन्तर चलने वाली आदान-प्रदान क्रिया को ही भारतीय मनीषियों ने 'यज्ञ' के नाम से पुकारा। प्रकति के टी टया अध्ययन से ही हो ऋषियों ने मानव समाज में 'यज्ञ' क्रिया का विधान बनाया था, ताकि मानव समाज सखी तथा सदैव जीवन्त बना रहे। हर जीवात्मा का आधार प्राण है। जब तक छूतकर प्राण का स्पन्दन रहता है, तब तक वह और जीवात्मा उस देह में स्थिर रहता है और प्राण मुक्त अर्थात ऊर्जा के समाप्त हो जाने पर जीवात्मा तथा उस शरीर को छोड़कर अगली यात्रा पर निकल पड़ता है मानव देह में भी चवही विराट शक्ति उत्पन्न होती रहती है, जिसे “जैव । नहीं ऊर्जा' कहते हैं। इस ऊर्जा का निरन्तर बाह्म । । जगत् की ओर उत्सृजन भी होता रहता है। शुल्क उत्सृजन प्रवाह किसी कारण से पूर्ण रूप से १ इसे अवरुद्ध हो जाता है, तभी वह देहधारी मृत हो । जाता है। प्राकृतिक नियम के अधीन हर देहधारी अपने से बड़े पिण्ड से चुम्बक । विद्युत शक्ति प्राप्त करता है तथा वायुमण्डल आध्यात्मिक में उत्सृजन भी करता है। यह चुम्बकीय विद्युत वैकल्पिक चिकित्सा विशेषांक शक्ति ही हर देहधारी का प्राण है। यही चुम्बकीय विद्युत तरंगें उच्च से उच्चतर आवृत्तियों में मन, बद्धि, मेधा समति क्रोध, लोभ आदि रूपों में प्रकट होती है। जब-जब प्राण क्षीण होता है, कोई न कोई आधि-व्याधि प्राणी को सताने लग जाती है। हर देहधारी के चारों ओर एक प्रभामण्डल निर्मित रहता है, जो देह से उत्सृजित होने वाले चुम्बकीय विद्युत तरंगों के प्रभाव से बनता है। यह प्रभामण्डल मानव देह के आकार का होता है तथा इसका तेज व्यक्ति के पवित्र अथवा अपवित्र भावों पर निर्भर करता है। इसमें कई रंग दिखाई पड़ते है। यह प्राण सदैव सहस्रार से मूलाधार की ओर प्रवाहित होता रहता है। महा। आकाश से ऊर्जा सहस्रार में प्रवेश करती है। ऊ इसीलिए हिन्दू लोग सहस्रार पर चोटी रखते थे। जब मन द्वारा विषयों का चिन्तन होता है, तभी इस तभी इस विषय में पुरुष की आसक्ति हो जाती है, तब विषयों को भोगने की कामना होती है। और कामना में विघ्न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से प्राण ऊजी का भरी विनाश होता है और उसके फलस्वरूप अविवेक अर्थात् मूढ़ भाव उत्पन्न होता है, स्मृति-शक्ति भ्रमित हो जाती है तथा ज्ञान का नाश भी हो जाता है। वास्तव में, कामनाओं (इच्छाओं) को ही रोगोत्पत्ति का कारण बतलाया गया है। जब-जब मानव काम अर्थात् कामनाओं के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले काम (संभोग की इच्छा), क्रोध, लोभ, मद, मत्सर, घृणा, ईष्र्या, द्वेष और भय- इन दस नकारात्मक मनोभावों का शिकार होता है, तब-तब उसकी प्राणशक्ति क्षीण होने लगती है और तभी उस पर कोई न कोई बीमारी हावी हो जाती है। आठ ।' प्रकार के मैथुनों द्वारा भी प्राण ऊर्जा क्षीण होती है। यह बात ठीक से समझ लेनी होगी कि बीमारी सर्वप्रथम मनः तल पर होती है, उसके । भौतिक कारण जैसे Infection आदि मन: तल । से उत्पन्न कारणों के अनुरूप ही शरीर वायुमण्डल से विषाणुओं को स्वयं ही ग्रहण कर लेता है। यद्यपि गलत खान-पान तथा । वायुमण्डल से उत्पन्न अत्यधिक सर्दी व नमी तथा प्रदूषण आदि भी बीमारी को उभारते हैं, परन्तु विषाक्त होना अथवा दुर्घटना को छोड़कर मौलिक कारण तो मनोद्वेग ही होता है। प्रवृत्तियों पर अंकुश रखने पर बार-बार बल दिया गया है। इस दस नकारात्मक मनोभावों के कारण प्राण का प्रवाह सुषुम्ना में स्थित सात चक्रों में से किसी एक अथवा अधिक चक्रों पर आंशिक रूप से अवरुद्ध होने लगता है और उस चक्र से प्राण प्रवाह संबंधित अंग अथवा अंगों तक सामान्य रूप से नहीं पहुंच पाता और वह अंग तब विशेष रूप से रोगग्रस्त हो जाता है। यदि यह प्राण प्रवाह पूर्णतः फिर से चालू कर दिया जाए तो देह अपने प्राकृतिक स्वरूप को प्राप्त कर लेता है और रोग नष्ट हो जाता है। रेकी चिकित्सा द्वारा यह प्राण प्रवाह पुन: चालू कर दिया जाना सम्भव है। यही इस चिकित्सा की पद्धति का रहस्य है। आयुर्वेद का मत है कि जब भी ‘प्राण' का अपान चक्र असंतुलित हो जाता है, तभी प्राण के अन्य चक्रों में मल आदि का जमाव होने लगता है और फिर सभी प्राण चक्रों की नस-नाडियों में अवरोध आने से रोगोत्पति होने लगती है। इसका प्रभाव जांचने हेतू नाडी की धड़कन से वैद्य लोग वात-पित्त कफ का असंतुलन जांचते है तथा उस असंतुलन को ठीक करने हेतु उपचार करते हैं। परन्तु आज के तनावग्रस्त जीवन में नस-नाड़ियों में जमा होने बिन्दुवाला मल इतना अधिक हो जाता है कि बिना चीरफाड़ के अथवा अन्य आधुनिक हो जाता है कि कठिन बीमारियां ठीक ही नहीं हो पाती। यदि रेकी तथा योग की शिक्षा बचपन से दे दी जाए तो ऐसी कठिन बीमारियों से बचाव हो सकता है। रेकी चिकित्सा के मख्य बिन्दुओं में सर्वप्रथम सकारात्मक विचारों को जीवन में पालन करना परम आवश्यक है, अर्थात्... 1. मैं आज क्रोध नहीं करूंगा। 2. मैं आज " बिन्दुओंचिन्ता नहीं करूंगा।



3. मैं आज अपना कार्य ईमानदारी से करूंगा। 4. मैं आज ईश्वरीय कपा निकलनी का आभारी रहूंगा। 5. मैं आज जीव मात्र से प्रेम व उसका आदर करूंगा। उपयुक्त नियमों का व्रत लेने के पश्चात् विद्यार्थी को किसी रेकी आचार्य से मानव देह के 24 बिन्दुओं, जिसमें 15 बिन्दु अधिक प्रभावी हैं, पर अपने हाथों की दोनों हथेलियों को रखना होता है। ये बिन्दु दोनों आँखों पर से । में आरम्भ होकर अन्त में मूलाधार चक्र तक जाते । हैं। इस क्रम में सुषुम्ना पर स्थित सभी चक्रों को छूना होता है। इन बिन्दुओं पर 3 से 5 मिनट जाती तक क्रमशः दोनों हथेलियां रखनी होती है। उपचार अपनी विशिष्ट बिन्दुओं/चक्रों पर हथेलियां रखते को समय हथेलियों को प्याले के आकार की । कर बनाकर हल्के से रखना चाहिए। हथेली को बिन्दु/चक्र से दो इंच ऊपर से भी रखें तो भी द्वारा ठीक है, क्योंकि शक्ति तो चुम्बक शक्ति के 8 ' को रूप में उस बिन्दु/चक्र पर प्रहार करती है। * कुशलतापूर्वक हाथों को कपड़ों के ऊपर ही रखना होगा बेशक क्योंकि चुम्बकीय विद्युत तरंगों के लिए कपड़ा साधनाअथवा दीवार व दूरी कोई मायने नहीं रखती।। ही ये तरंगें सबका भेदन कर जाती है। होना हर प्राणी अपने शरीर से ऊर्जा का उत्सृजन । करता रहता है, विशेषकर हथेलियों से परे अवस्था उठाना शरीर का लगभग 35% ऊर्जा का उत्सृजन होता है। हथेलियों की इसी ऊर्जा को विशिष्ट बिन्दुओं/चक्रों पर रखने से उस चक्र में अवरुद्ध अपान वायु नीचे से अथवा ऊपर से निकलनी शुरू हो जाती है तथा अधिक समय तक हाथ रखे जाने पर नींद भी आने लगती है। ऐसा होने पर सहस्रार से मूलाधार तक प्राण प्रवाह चालू हो जाता है और धीरे-धीरे बीमारी का उपचार होने लगता है। धैर्यपूर्वक इस प्रक्रिया को करते रहना आवश्यक है। किसी विशिष्ट अंग के रोगग्रस्त होने पर उस अंग पर हथेलियों को प्रतिदिन 20 से 30 मिनट तक रखना चाहिए। इस पहली डिग्री की शिक्षा के अन्त में रेकी आचार्य अपने शरीर से, अपनी प्राण-ऊर्जा से विद्यार्थी के सिर तथा हथेलियों पर शक्ति प्रहार करते हैं, जिसे शक्तिपात कहा जाता है। ऐसा होने पर ही विद्यार्थी के शरीर की सुषुम्ना में स्थित सभी चक्र खुल जाते हैं और प्राण-प्रवाह ठीक से होने लगता है। हर विद्यार्थी को यह प्राण प्रवाह सतत चालू रखने हेतु रेकी का अभ्यास करते रहना चाहिए। चाहे भले ही उसे कोई बीमारी न भी हो, क्योंकि ऐसा करते रहने से रेकी से प्राप्त ऊर्जा द्वारा मानव के मानसिक तथा आत्मिक उत्थान के द्वार खुलने लग जाते हैं। यह प्रशिक्षण पहली, डिग्री का कहा गया है। रेकी की शिक्षा कुल चार स्तरों की होती है। चारों स्तर की शिक्षा पूरी होने पर प्रशिक्षार्थी दूसरों को भी रेकी आचार्य बना सकता है। उच्च स्तरों के प्रशिक्षण में प्रतीकों के माध्यम से ब्रह्माण्ड की ऊर्जा का । आह्वान करके समय की काफी बचत की जाती है तथा विद्यार्थी अब किसी भी रोगी का उपचार घर बैठे कर सकता है। प्रयोगकर्ता अपनी संकल्पशक्ति द्वारा दूरस्थ व्यक्ति के मन को प्रभावित भी कर सकता है तथा उपचार तो । कर ही सकता है। इस शिक्षा को सिद्ध रेकी आचार्य से ही सीखना चाहिए। योग साधना के द्वारा अपने चक्रों को जाग्रत करके इस क्षमता 8 को प्राप्त करके साधक समाज की कुशलतापूर्वक सेवा कर सकता है। रेकी शब्द बेशक जापानी है परन्तु यह शक्ति की साधना/कुण्डलिनी साधना अर्थात् योग साधना । ही है। उसका व्यापारिक दृष्टि से प्रयोग नहीं होना चाहिए। साथ ही योग की उच्चतम । अवस्था को प्राप्त करने में उस ऊर्जा का लाभ उठाना चाहिए।