सतगु की कृपा से प्रभु की प्राप्ति

                            सतगु की कृपा से प्रभु की प्राप्ति  


 मत चाह, यश, इच्छा, खींच कर हमको हमारी वृत्तियाँ, हमारा मन प्रभु की कृपा से, प्रेरणा से, सतगुरु की वाणी में रमण करे. इससे बड़ा सौभाग्य भला क्या हो सकता है? सतगुरु की कृपा प्रयत्न करने से मिलती है। सतगु रु की कृपा प्रयास करने से मिलती है। ६ की कृपा पुरुषार्थ करने से मिलती है। सतगुरु की कपा से प्रभ की प्राप्ति होती है। हमने अगर प्रयत्न नहीं नट अर्थ नहीं किया, प्रयास नहीं किया तो फिर सतगुरु के चरणों में बैठना संभव नहीं हो पाएगा। हमारी प्रभु मिलन की यात्रा प्रयास और प्रसाद की यात्रा है। प्रयत्न करो, पुरुषार्थ करो, मेहनत करो, श्रम करो। एक बात का स्मरण रखना प्रयत्न करके, पुरुषार्थ करके हम इस लायक हो सकते हैं कि हम इस पात्रता को अर्जित कर सकें। ओंधा पड़ा-घड़ा सीधा कर लें। ‘साकी की सुराही में शराब लबालब है. पैमाना तेरा नशेमन उलटा पड़ा है।' प्रयत्न कितना? प्रयास कितना? हम अपनी मेहनत से उलटे धडे को सीधा कर सकते हैं। हम अपनी मेहनत से इस घड़े को सीधा कर सकते हैं। हम अपनी मेहनत से इस घड़े को भर नहीं सकते इसलिए पहले प्रयत्न कीजिए, प्रयास कीजिए, जिससे घड़ा सीधा हो जाए और फिर प्रतीक्षा कीजिए कि प्रभु की कृपा बरसे और रीता घड़ा भर जाए। जो सोचते हैं मैं पुरुषार्थ से मनुष्यता से पार होके भगवता के शिखर छू लूगा उनके जीवन में अहंकार आता है अभिमान आता है। हमने देखा एक निखरा हुआ साधु। जिसने साधुता से अपने को निखारा। अपने आपको शुद्ध किया। जिसके - मुखारबिन्द से तेज दिखाई देता है। उसने अपने में आपको साधा है अपने शरीर को साधा है। लेकिन परुषार्थ से उसने उस स्थिति को प्राप्त किया है इसलिए जब उसके पास जाकर बैठते हैं तो अभिमान की, अहंकार की गंध आती है। अहंकार इस बात का कि मैं अपने बल से पहुंचा हूं। मैंने साधना की है। मैने साधा है अपने मन को। में आम संसारियों की तरह नहीं हूँ। अपने बल पर मैंने पात्रता अर्जित की है। हूँ। अपने बल पर मैने पात्रता अर्जित की है। साधुता अर्जित की है। ये पवित्रता अर्जित की है। ये अभिमान है। उसके मन में। जहां हा अभिमान होगा, अहंकार होगा, जहा मेरा खुदा अभिमान होगा, अहंकार होगा, जहां मेरी खुदी इतनी बुलंद होगी, वहां खुदा कहा बरसेगा? जिसकी संभव नहीं। एक संत प्रभु की कृपा पर ही विश्वास करता है। उसको हमने देखा तो उसके जीवन से में अहंकार तो नहीं है, विनम्रता है किन्तु आलस है प्रमाद है। वो कहता है प्रभु की कृपा से ही होना है। इसलिए मुझे कुछ करने की आवश्यकता नहीं। जो मेहनत कर रहा है वो अहंकारी हो गया। जो सिर्फ प्रतीक्षा कृपा की कर रहा है वो आलसी और प्रमादी हो गया। या। उसने कहाः। ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम। दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।' वे जो प्रयत्न करने में लगा है अभिमानी प्रार्थना अहंकारी हो गया। क्योंकि वह स्वयं पुरुषार्थ ।* कर रहा है मेहनत कर रहा हैं। वो कह रहा है " कपावान कोई नहीं। कृपा कहीं से नहीं बरसती । * स्वयं मेहनत, श्रम करने से उपलब्धियां अर्जित । होती है। इसलिए वो अभिमानी हो गया। और इच्छा चिन्ताजो सिर्फ कृपा के भरोसे बैठा है वो आलसी सा एवं प्रमादी हो गया। बहुत नुकसान हुआ दोनों का फिर आप कहोगे साध्वी जी हम प्रारम्भ । कैसे करें? प्रयास से करें या प्रसाद बरसने की क प्रतीक्षा से कर प्रतीक्षा से करें? तो फिर मैं कहूंगी प्रारंभ प्रयास से ही है से ही होना चाहिए। शुरुआत तो हो। कम से कम इतनी यात्रा तो हो कि औंधा घड़ा सीधा हो जाए। किन्तु औंधा घड़ा सीधा तो हो जायेगा पर ये रीता-रिक्त घड़ा बिना कृपा के भरेगा नहीं। मल्लिा और उसके बाद प्रभु की कृपा के प्रसाद का इंतजार कीजिए। कृपा तो निरन्तर हो रही है। कबीर के पात्र भर गया। नानक का घड़ा भर गया। दादू का घड़ा भर गया। मीरा का घट लबालब हो गया। कृपा तो सब पर हुई। लेकिन अर्जित किसने की? जिसकी पात्रता थी। जिसकी स्वयं की तैयारी थी। जिसकी स्वयं की साधना थी। जिसका घड़ा सीधा पड़ा था। कई बार घडा सीधा भी होता है लेकिन भरा है। मल, मत्र से सीधा तो है पर भरा है। फिर कहां बरसे अमत की वर्षा का जल? कहां समाए? भरा है। सीधा होने पर भी भरा है। कौन सी गंदगी से भरा है। कामनाओं की, वासनाओं, महत्वाकांक्षाओं की, इच्छाओं की लम्बी कतार है। घडा सीधा होना चाहिए परन्त खाली भी तो होना चाहिए। उध होना चाहिए। प्रभु की कृपा के लिए प्रार्थना भी करने चले तो प्रार्थना नहीं कर पाए। प्रभु से सुख सम्पत्ति मांगने की इतनी लम्बी फेहरिस्त है हमारी कि उस मांग में प्रार्थना खो गई। परन्तु प्रार्थना जो सच्ची होती है उसमें कोई माग नहीं ।। होती है। हमने तो प्रार्थना शब्द को भी विकृत । कर दिया। प्रार्थना वो जो निर्वसना होती है। बोझ ढोके मुआवजा चाहने वाला मजदूर कहलाता है। प्रार्थना वो नहीं होती जिसमें इच्छा चाह है, जिसमें आकाक्षाएं हैं। न चाह, न चिन्ता, न शिकायत, न शिकवा। क्या हमने ऐसी प्रार्थना कभी प्रभु की? हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं धन देना, यश देना, पत्र देना और बहत रोगी हैं तो प्रभ दवाई की व्यवस्था कर देना। मैं शरीर के रोग की बात नहीं कर रही। में मन के रोग की बात कर रही हैं। जिस मन को कामनाओं का, वासनाओं का रोग लग गया है। जब हम कामना पूर्ति की प्रार्थना करते हैं। तो समझ लीजिए हम रोग खत्म नहीं करना चाहते वरन् हम रोग को पुष्ट करना चाहते हैं।