स्वास्थ्य संरक्षण में स्वस्थ-वृत्त

                                 


        आहार-विहार स्वास्थ्य संरक्षण में स्वस्थ-वृत्त


स्वस्थ जीवन के निर्वाह के साधन एवं विधियों यो को स्वस्थ-वृत्त कहा जाता है। अनेकों आधुनिक लेखकों ने संपूर्ण स्वास्थ्य एवं स्वस्थ संरक्षण का प्रयास किया है किन्तु कोई भी लेखक इतनी यथार्थ परिभाषा नहीं दे पाया जैसी अपने प्राचीन आचार्यों न दी है। स्वस्थ परिभाषा स्पष्ट करते हुए आचार्य सुश्रुत ने कहा है‘सम दोषः समाग्निश्च समधातु मलक्रियः।। प्रसन्नात्मेन्द्रिय मनः स्वस्थ इत्यभिधीयते॥' ( सु.सू.15148) उपयुक्त परिभाषा में शारीरिक, मानसिक एवं मानसिक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। स्वास्थ्य का तात्पर्य व्याधिहीनता ही नहीं अपितु इसका अर्थ मन एवं आत्मा की का प्रसन्नता भी है, सुपूर्ण शारीरिक-मानसिक * सामंजस्य ही स्वास्थ्य की कुंजी है। स्वास्थ्य उपलब्धि के साधन :- उत्तम तथा संपूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए मन और शरीर दोनों को ही अपनी सामान्य अवस्था में एवं सामंजस्य में भी होना चाहिए। शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए आयुर्वेद में दिन, रात एवं ऋतुओं में उचित रहन-सहन पर जोर दिया है। उचित मानसिक स्वास्थ्य के लिए सदाचार का अभ्यास भी करना चाहिए। सामाजिक स्वास्थ्य भी हमारे जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। ग्राम नगर विकास के लिए एवं समग्र देश के विकास के लिए नागरिक कर्तव्यों का पालन आवश्यक है। दिनचर्या :- यह दिन में करने वाले कार्यों एवं लिए वर्थ्य कार्यों को समाविष्ट करती है यथा सवेरे सोकर उठने से रात में सोने के समय तक के कार्य दिनचर्या कहलाती है। 



• उठने का समय :- प्रातः सूर्योदय से पूर्व जल्दी ब्रह्म मुहूर्त में उठना चाहिए। यह अभ्यास लाभप्रद है क्योंकि मनुष्य अर्धसुप्तावस्था में सपने विधियों यो देखने से बचता है एवं अर्धसुप्तावस्था में वीर्य को ना ३ पर्व अर्धवप्नावस्था में वीर्य । आधुनिक क्षरण से भी बचा जा सकता है जो कि प्रायः । का प्रात:काल ही होता है एवं इससे मस्तिष्क के इतनी स्वच्छ रहने का अवसर 'मिलता है तथा शरीर की प्राचीन क्षतिपूर्ति होती है। । करते उषापान (जल पीना ) :- प्रात:काल में उठने मलक्रियः।। के साथ ही पानी पीने से मल एवं मूत्र का त्याग भलीभांति होता है। इत्यभिधीयते॥' उत्सर्ग (मल-मूत्र त्याग) :- प्रातः मल-मूत्र त्याग की आदत डालना अत्यन्त आवश्यक है। एवं नियों एवं प्रातिक वेगों को रोकने की आदत अनेकों रोगों रोकने वाटत अनेकों रोगों प्रयास का मूल कारण है। उषापान (जल पीना ) :- प्रात:काल में उठने के साथ ही पानी पीने से मल एवं मूत्र का त्याग भलीभांति होता है। उत्सर्ग (मल-मूत्र त्याग) :- प्रातः मल-मूत्र त्याग की आदत डालना अत्यन्त आवश्यक है। नियों प्रातिक वेगों को रोकने की आदत अनेकों रोगों रोकने वाटत अनेकों रोगों का मूल कारण है। । । दांत एवं मुंह की सफाई :- दांत, जिवा एवं 7 की मुंह की सफाई प्रतिदिन प्रातः अवश्य करनी प्रय करनी चाहिए। दांतों को बबूल की दातून, नीम की दातून या अच्छे जीवाणुनाशक एवं दतमंजन चर्ण से करनी चाहिए जिससे कि दांतों पर जीम गंदगी एवं शर्करा हटाई जा सके। यदि दांतों या मसुडों का कोई रोग हो तो दांतों एवं मसूड़ों पर तेल की मालिश करें। जिहवा पर एकत्रित मल को धली हुई जिह्वा निर्लेखनी से जिनके किनारे न बहत तेज हों तथा न बहुत खुरचनी चाहिए। निर्लेखनी को सफाई के पूर्व स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। यह बलदायक है एवं इससे व्याधि के विरुद्ध प्रतिरोध प्राप्त होता है। शरीर की नलिकाओं की सफाई होती है। कुछ अंशों में यह व्यायाम का भी कार्य करता है। ' व्यायाम :- नियमित व्यायाम पूर्ण स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। यह बलदायक है एवं इससे व्याधि के विरुद्ध प्रतिरोध प्राप्त होता है, शरीर की नलिकाएं साफ होते हैं, रक्त संचार में वृद्धि एवं फुफ्फुसों की कार्य क्षमता में वृद्धि करता है। प्रातः देशी यौगिक एवं पाश्चात्य प्रकार के व्यायाम का प्रयोग किया जा सकता है। मोटे तौर पर व्यायाम द्वारा माथे पर पसीना आ जाना चाहिए। तथापि कास, क्षय, हृदय रोग आदि से पीडित व्यक्ति को व्यायाम की विधि के चयन के संबंध में सावधान रहना चाहिए अर्थात् कौन-सा व्यायाम कितनी देर तक किया जाए इसका । प्रायः विचार आवश्यक है। स्नान :- साधारणतया उष्ण जल से वायु वेगों से सुरक्षित स्नान करना चाहिए। सिर धोने के लिए शरीर के तापमान के समान पानी का प्रयोग करें। स्नान से जठराग्नि की वृद्धि होती है त्वचा के छिद्र स्वच्छ हो जाते हैं एवं त्वचा साफ रहती है।



आहार पर निर्देश :- 1. भोजन के 10-15 मिनट पूर्व ताजा अदरक थोड़े से नमक के साथ खाएं। 2. आहार को विशेषकर कड़ी वस्तुओं रोगों को अच्छी तरह चबाना चाहिए। 3. यथासंभव भोजन के बाद दही व मट्ठे का प्रयोग करना एवं पाहिए। चाहिए। 4. भोजन ताजा, स्वादिष्ट एवं देखने करनी में में अच्छा लगना चाहिए। 5. यह बहुत गरम या ठंडा नहीं करना चाहिए। 6. भोजन के कम से चर्ण कम 15 मिनट पूर्व तक पानी नहीं पीना चाहिए। भोजन के समय पान मसुडों चाहिए। इस थोड़ा-थोड़ी मात्रा में बार-बार पिए। भोजन के समय पान चाहिए। इस थोड़ा-थोड़ी मात्रा में बार-बार पिए। 7. भारी आहार सीमित मात्रा में लेना चाहिए। 8. भारी आहार रात में नहीं लेना चाहिए। रात्रि भोजन का उचित समय सोने के 2-3 घंटे पहले होना चाहिए। रात्रि भोजन के बाद थोड़ा टहलना करीब 100 कदम टहलना उपयुक्त है। 9. भोजन के बाद भारी कार्य या व्यायाम करने से बचना चाहिए। 10. भोजन के बाद भारी शारीरिक या मानसिक कार्य करने से बचना चाहिए। भोजन के उचित पाचन के लिए कुछ आराम वांछनीय है। निंद्रा :- मनुष्य मात्र के स्वास्थ्य संरक्षण एवं दीर्घ जीवन के लिए निंद्रा अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसे जगद्धात्री उचित कहा गया है क्योंकि इसकी प्रक्रिया द्वारा शारीरिक श्रम एवं मानसिक तथा धातुक्षय जनित शरीर की क्षतिपूर्ति में सहायता मिलती है। निंदा पर निर्देश .-1 पर्व या उत्तर दिशा में सिर रखकर सोना चाहिए। 2. शयन कक्ष अत्यन्त स्वच्छ हवादार एवं शोर तथा उपद्रव से दर होना चाहिए। औया व्यवस्थित तल एवं खटमल रहित हो। 4. शयन कक्ष वायु के आवेगों से मुक्त होना चाहिए। 5. मस्तिष्क की उत्तेजना की अवस्था में यथा पढने विचार करने या मद्यपान के बाद शयन वर्जित करना चाहिए। 6. सोने के समय मन सांसारिक मामलों एवं चिंताओं से मक्त रहना चाहिए। 7. रात में देर से सोने से स्वास्थ्य खराब होता है। 8. शरीर की क्षतिपूर्ति के लिए के लिए 24 घंटे से कम 6 घंटे सोना अत्यावश्यक है। • यथासंभव दिन में सोने से बचना चाहि तथापि यदि कोई रात में जागता है तो दिन में कुछ समय के लिए सो सकता है। गर्मी के दिनों में दिन में सोना वर्जित नहीं है. परन्त जोड़ों के दिनों में सोने से कफ बढ़ता है जिससे श्वसन एवं गळे पाचन विकार होते हैं। 10. सिर, तलवों एवं हथेली पर सोने के पूर्व मालिश करना वांछनीय है। = मैथुन :- सभी प्राणियों के लिए मैथुन एक प्राकृतिक आवेग है। स्वास्थ्य की वृद्धि के लिए भी मैथुन आवश्यक है। निम्नकोटि के जीवन भी कुछ स्तर तक नियंत्रण रखते हैं परन्तु मैथुन में अतिलिप्त या दुरूपयोग के प्रति अत्याधिक तत्पर प्रतीत होते हैं। इस प्रक्रिया के लिए कुछ नियम है जो इस प्रकार है :मैथन पर निर्देश :- 1. मैथन अति प्रवृत्ति शरीर के लिए हानिकारक है। इससे क्षयज व्याधियां भी हो सकती है। 2. मैथुन रात्रिकाल में प्रथम प्रहर में करना उचित है जिससे कि मैथुन कर्म के बाद संपूर्ण रात्रि भर विश्राम कर सकें। 3. यद्यपि काम शास्त्र में अनेको आसन बताए गए हैं परन्तु उत्तान स्थिति उत्तम है। 4. हस्तमैथुन, गुदमैथन हा 4. हस्तमथुन, गुदमथुन शरीर के लिए हानिकारक हैं। 5, यौन व्याधियों । स पाड़ित स्त्रिया का वजन कर जिस स व्याध संपर्क न हों। 6. स्वास्थ्य वृद्धि एवं बल के लिए मैथुन के बाद एक गिलास लगभग 250 । ग्राम दूध पीए। 7. व्याधिकाल में या व्याधि के बाद के समय में मैथुन न करें अन्यथा कमजोरी ॐ वक्षशूलबढ़ेगी एवं व्याधि निरोध क्षमता कम होगी। अधारणीय वेग :- स्वाभाविक वेग 13 हैं, इन्हें कभी कभी नहीं दबाना चाहिए क्योंकि इन्हें रोकने से अ अनेकों रोग हो सकते हैं। ये वेग हैं-1. मुत्र 2. पुरीप, 3. वीर्य, 4. अपानवायु, 5. वमन, 6, छकि, 7. डकार, 8. जम्भाई, 9. भूख, 10, प्यास, 11. आंसू, 12. श्वास एवं 13. निंद्रा। मूत्र रोकने से :- 1. मूत्र त्याग में कष्ट, 2. मूत्र प्र प्रणाली में पथरी, 3. मूत्राशय की क्रियाहीनता, जिससे 4. मूत्र प्रणाली में शोथ होते हैं। पुरीष रोकने से :- 1. उदरशूल, 2. अफारा, 3. अजीर्ण, 4. पेट में वायु, 5. सिर दर्द, 6. पेट में घाव उत्पन्न होते हैं। 6. प अपानवायु रोकने से :- 1. उदरशल, 2. अफारा, 3. अजीर्ण, 4. हद्रोण, 5. कब्ज या अतिसार एवं 6. पेट में वायु उत्पन्न होते हैं। श्वास शक्र को रोकने से - जब वीर्य क्षरण होने वाला एक हो उस समय उसको रोकने से पथरी, अण्डकोष में पीड़ा एवं मैथुन में कष्ट हो सकता है। वमन रोकने से :- जब भोजन हजम नहीं होता । विकारतो शरीर उसे बाहर निकालने का प्रयास करता निद्रा आहार-विहार एवं स्वास्थ्य विशेषांक है। यदि उसे रोका जाए तो अपच्च आहार शरीर में संचरित होता है एवं इससे अनेकों व्याधियां यथा शीतपित्त, चक्कर आना, रक्ताल्पता, अम्लपित्तत्वक रोग एवं ज्वर उत्पन्न होते हैं। छींक को रोकने :- यह क्रिया नाक से बाहरी , । पीनस एवं श्वसन संस्थान के विकार उत्पन्न करते हैं। _ उद्गार रोकने से :- उद्गार रोकने से हिचकी, कमजोरी वक्षशूल, कास, अरुचि एवं मंदाग्नि होती है। जम्भाई रोकने से :- जम्भाई के वेग ३३ आंख, कान, गला एवं नाक के रोग होते हैं। भूख एवं प्यास रोकने :- भूख एवं प्यास रोकने से भोजन एवं पानी पीने की इच्छा पोषण एवं क्षति पूर्ति की आवश्यकता इंगित करती है। इनको रोकने से यथा भखा या प्यासा रहने से पोषण विकार एवं दुर्बलता उत्पन्न होती है। शरीर की प्रतिरोध एवं व्याधि क्षमता भी कम होती है। जिससे व्याधि ग्रसित होने की संभावना बढ़ जाती है। इस प्रकार क्षुधाशूल एवं शोष आदि रोग उत्पन्न होते हैं। _ उद्गार रोकने से :- उद्गार रोकने से हिचकी, वक्षशूल, कास, अरुचि एवं मंदाग्नि होती है। जम्भाई रोकने से :- जम्भाई के वेग ३३ आंख, कान, गला एवं नाक के रोग होते हैं। भूख एवं प्यास रोकने :- भूख एवं प्यास रोकने से भोजन एवं पानी पीने की इच्छा पोषण एवं क्षति पूर्ति की आवश्यकता इंगित करती है। इनको रोकने से यथा भखा या प्यासा रहने से पोषण विकार एवं दुर्बलता उत्पन्न होती है। शरीर की प्रतिरोध एवं व्याधि क्षमता भी कम होती है। जिससे व्याधि ग्रसित होने की संभावना बढ़ जाती है। इस प्रकार क्षुधाशूल एवं शोष आदि रोग उत्पन्न होते हैं। आंसू रोकने से :- आंसू रोकने से भावुकतावश प्रसन्नता या शोक के कारण आंसू निकलते परन्तु यदि इन्हें रोका जाए तो मानस रोग, छाती में दर्द वक्कर एवं पाचन विकार उत्पन्न होते हैं। श्वास रोकने से :- श्वास रोकने से प्राणायाम एक महत्वपूर्ण यौगिक क्रिया है एवं व्यक्ति को क्रमशः श्वसन व्यायामों का अभ्यास करना चाहिए। अकस्मात् श्वास रोकने से घुटन श्वसन विकार, हृदय रोग एवं मृत्यु भी हो सकती है। निद्रा रोकने से :- यह एक स्वाभाविक वेग है। जब मस्तिष्क थक जाता है तथ ज्ञानेन्द्रियां एवं कर्मेन्द्रियां के रोग उत्पन्न होते हैं। सदाचार या अच्छा व्यवहार सदाचार पर निर्देश :- 1. सभी लोग अपनी प्रसन्नता के लिए कार्य करते हैं। प्रसन्नता को अन्य लोगों के साथ भी बांटना चाहिए। सभी को प्रसन्नता प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रवृत्ति को हितायु कहते हैं जो हमारी सभ्यता की विशेषता है। 2. पड़ोसियों एवं शुभचिन्तकों से प्रेम करना चाहिए तथा शत्रु एवं आवारा व दुष्ट लोगों से दूर रहें। 3. शारीरिक वाणी के एवं मानसिक पापों से दूर रहें। शारीरिक पाप, चोरी, दूसरों को अभिघात व्यभिचार एवं शर्करा युक्त बलात्कार आदि है। वाणी के पाप, असत्य वचन, कटुवचन, दूसरों की गोपनीय बातों को प्रगट करना एवं अनर्गल बातें करना है। मानसिक पाप, ईष्यों या दुर्भावना है। 4. जरूरतमंद विकलांगों एवं असक्त की यथासंभव सहायता करें। 5. विद्वानों, शिक्षित व्यक्तियों, चिकित्सकों या वैद्यों, अतिथियों एवं गायों का सम्मान करे। 6.नम्रतापूर्वक रहने का अभ्यास करें। 7.असहयोगी शत्रुओं की भी उनकी आवश्यकता के समय सहायता करें। 8 मन को संतलित रखें, सम्पन्नता के समय उद्दण्डता एवं विपन्नता के समय शोक एवं ईष्र्या को रोकें। 9. व्यक्ति को हत् पर विचार करना चाहिए न कि फल पर। 10. अनर्गल बातें नहीं करना चाहिए। 11. शत्रुता एवं अपमान प्रगट नहीं करना चाहिए। 12. ज्ञानेन्द्रियों पर नियंत्रण रखना चाहिए। 13. कार्यों को इस प्रकार नियोजित करना चाहिए कि सभी तीनों उपलब्धियों यथा धर्म, अर्थ एवं काम की प्राप्ति हो। 14. किसी वस्तु से लगाव नहीं करना चाहिए। 15. प्रतिदिन दाढ़ी बनाएं। । 16. छींकते या जम्हाई लेते समय हमेशा नाक एवं मुख पर रूमाल रखें जिससे व्याधि का प्रसार न हो। 17, अत्यधिक थकान के बाद काम बंद कर देना चाहिए। 18. रात के समय पेड़ के नीचे नहीं सोएं। 19, मदिरा का पान नहीं करना चाहिए। 20. निम्न व्यक्तियों या निम्न नैतिक स्तर के लोगों की सेवा न करें। 21. गोधूलि वेला या प्रातः सूर्योदय के समय भोजन, मैथुन, रखेंनिन्द्रा एवं अध्ययन नहीं करना चाहिए। 22. घर के कूड़े को उसके उचित स्थान पर फे। 0 23, समय के साथ चलना चाहिए। बुद्धिमत्तापूर्ण जन भावना ही उत्तम मार्ग निवारण है। 24. दिन में जो भी घटता है उसकी डायरी रखें। सामाजिक स्वास्थ्य - मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है एवं समाज में इस प्रकार कार्य करना चाहिए। जो समुदाय के स्वास्थ्य एवं स्वच्छता में सहायक हों इसे व्यक्ति * के स्वयं के प्रयासों ९ एव सबधित अधिकारियों से उनके सहयोग द्वारा प्राप्त किया जा सकता है यथा :1. घर का कूड़ा अन्यत्र न फेंक कर उचित स्थान पर ही डालें। 2. निकास प्रणाली प्रदान करें। ब 3. मूत्रालय एवं शौचालयों को भलीभांति साफ रखें। 4. जल एवं जल पात्र उचित ढंग से साफ करें। यदि संक्रामक रोग से पीड़ित रोगी दिखे उसकी सूचना तत्काल उचित अधिकारियों को दें जिससे कि वे लोग व्याधि के प्रसार को रोकने की उचित व्यवस्था कर सकें एवं हमें भी इस प्रकार के कदम उठाने चाहिए कि अधिकारियों के प्रयासों में सहायक हो।