योग एवं पंचकर्म चिकित्सा

                                                         योग एवं पंचकर्म चिकित्सा 


वैसे तो यह एक गहन विषय है, परन्तु प्रस्तुत लेख में इस विषय को बहुत ही सरल भाषा में बताया जा रहा है, जिससे पाठक वर्ग इसे भली-भांति समझ सके एवं लाभन्वित हो सके। सर्वप्रथम हम आयुर्वेद को परिभाषित करते हैं। आयुर्वेद विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है। जिस वेद में जीवन के ज्ञान का वर्णन है, वह आयुर्वेद कहा गया है। चरक संहिता के अनुसार- हिताहितं सुखं दुःखमायुस्वस्य हिताहितम्। मानं च वच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते॥ अर्थात् जिस ग्रंथ में हित आयु (जीवन के । अनुकूल), अहित आयु (जीवन के प्रतिकूल), पंचकर्म सुख आयु (स्वस्थ जीवन) एवं दु:ख आयु (रोग अवस्था) इन सबका वर्णन हो उसे आयुर्वेद कहते हैं। आयुर्वेद एवं आयुर्विज्ञान दोनों ही चिकित्सा या शास्त्र हैं परन्तु व्यवहार में चिकित्सा क्षेत्र में प्राचीन दोषी तरीके को आयुर्वेद कहते हैं तथा आधुनिक ऐलोपैथिक प्रणाली को आयुर्विज्ञान कहा जाता है। प्रमुख आयुर्वेद में लगभग निम्न बातें मुख्यत: आती हैं :



 


1. जीवन का ज्ञान, 2. स्वस्थ एवं रोगी के लिए उत्तम आहार-विहार, 3. आयु, आयु विद्या, आयु ज्ञान, आयु लक्षण, आयु तंत्र आदि विषयों की रक्त जानकारी। चरक संहिता, आयुर्वेद का आधार स्तम्भ कहा जाता है। आयुर्वेद के दो उद्देश्य मुख्य रूप से बताये गए हैं। स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना एवं रोगी व्यक्ति के विकारों को दूर करके उन्हें स्वस्थ बनाना। (1) स्वस्थ रहने के लिए उचित आहार-विहार चेहरा, व्यायाम, शौच, स्नान, शयन, जागरण आदि की व्याख्या की गई है। गृहस्थ जीवन में उचित दिनचर्या, रात्रिचर्या एवं ऋतचर्या का निवरण है। प्राचीनतम प्रत्येक कार्य तितेपर्वक करना मन-इटिस का देश नियंत्रण, मल-मूत्र आदि वेगों को बलपूर्वक न रोकना आदि विषयों का विवरण है। स्वास्थ्य रक्षा के साधनों का समुचित विवरण इस भाग में ही आता है। (2) आयुर्वेद के अनुसार मानव शरीर में तीन प्रकार के दोषों का विवरण है। वात, पित्त, कफ। तीनों दोषों के सम रहने को स्वस्थता बताया गया है। किसी भी एक के विषम होने पर रोग की दशा उत्पन्न हो जाती है। इस विषमता को दूर करना तथा पुनः तीनों दोषों को सम रूप लाना ही आयुर्वेद चिकित्सा है। आयुर्वेद चिकित्सा में बहुत प्रकार से चिकित्सा की जाती है। यथा औषध, रसायन, वाजीकरण, शल्य, कौमारभृव्य, भूत विद्या अगदतंत्र आदि आदि-आदि इन्हीं में से एक है ‘पंचकर्म' पंचकर्म चिकित्सा :- अर्थात् पांच तरह के कर्म यह आयुर्वेद की उत्कृष्ट चिकित्सा विधि मानी जाती है। इस विधि में शरीर में होने वाले रोगों और । रोगों के कारणों को दूर करने के लिए तथा तीनों दोषी दोषों (वात, पित्त, कफ) के असम रूप को सम कर करने के लिए विभिन्न प्रक्रियाएं प्रयोग में लाई जो जाती है। इन विभिन्न प्रक्रियाओं में पांच कर्म प्रमुख हैं, इसलिए इसे 'पंचकर्म चिकित्सा कहते हैं। ये पांच कर्म निम्न प्रकार से हैं :1. वमन, 2. विरेचन, 3. वस्ति, 4. नस्य, 5. रक्त माक्षण आयुवेद में वर्णित पचकर्म चिकित्सा विश्व को प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है। हमारे देश के दक्षिण भाग में यह बहुत लोकप्रिय है। वहां पर तो स्वस्थ व्यक्ति भी इसे शरीर शुद्धि के लिए स्वीकार कर रहे हैं। उत्तर भारत में यह पद्धति अभी हाल ही में प्रचलन में आई है। इस पद्धति में शरीर के विषैले तत्वों को बाहर निकालकर शरीर को शुद्ध किया जाता है। इसी से योग निवारण भी हो जाता है। इस पद्धति से रोगों को जड़ से समाप्त किया जा सकता है। यह शोधन की प्रक्रिया है। इसमें उपरोक्त वर्णित पांच प्रधान कर्म होते हैं तथा इनसे पहले किये जाने वाले दो पूर्व कर्म होते हैं। अर्थात् इस चिकित्सा पद्धति के दो भाग होते हैं। प्रधान कर्म :- वमन, विरेचन, वस्ति, नस्य एवं रक्त मोक्षण। पर्व कर्म :- स्नेहन एवं स्वेदन। पूर्व कर्म :- स्नेहन शब्द का अर्थ शरीर को स्निग्ध करने से है। यह क्रिया तेल, घी आदि चिकने पदार्थों से शरीर की मालिश तथा इन पदार्थों को मुख से प्रयोग करके भी की जाती है। कुछ रोगों की चिकित्सा में स्नेहन को प्रधान कर्म के रूप में भी लिया जाता है। स्नेहन क्रिया में मुख्यतः चार प्रकार के स्नेह प्रयोग किए जाते हैं। 1. घृत, इसमें गौघृत को सर्वोत्तम माना गया है। 2. मज्जा, 3. वसा एवं 4तेल। ये चारों स्नेह मुख्य रूप से पित्तशामक होते हैं। 2. स्वेदन :- इसका तात्पर्य शरीर से पसीना उत्पन्न करने से है। कृत्रिम उपायों से शरीर में पसीना उत्पन्न करने की क्रिया को स्वदेन कहते हैं। । (अ). 1. एकांग स्वेदन :- अंग विशेष का स्वेदन, 2. सर्वाग स्वेदन - पूरे शरीर का स्वेदन। (ब). 1. अग्नि स्वेद - अग्नि के सीधे संपर्क से स्वेदन 2. निरग्नि स्वेद :- बिना अग्नि के संपर्क द्वारा स्वेदन। पंचकर्म असल में शरीर की अंदरूनी सफाई होती है। पंचकर्म के प्रधान कर्म :- 1. वमन - उल्टी कराकर मुख द्वारा दोषों को निकालना वमन कहलाता है। वमन को कफ दोष की प्रधान चिकित्सा बताया गया है। श्वास, कास, प्रमेह, एनीमिया, मुख रोग, अर्बुद आदि में वमन कराया जाता है। गर्भवती स्त्री, कोमल प्रकृति वाले व्यक्ति, अतिकृश एवं भूख से पीड़ित को वमन चिकित्सा नहीं दी जाती। 2. विरेचन :- गुदा मार्ग से मल द्वारा दोषों को निकालने की क्रिया को विरेचन कहा जाता है। विरेचन को पित्त दोष की प्रधान चिकित्सा कहा गया है। शिराः शूल, अग्नि, अर्श, भगंदर, गुल्म, रक्त, उक्त पित्त आदि रोगों में विरेचन दिया जाता है। नवीन ज्वर के रोगी, रात में जागने वाला, राज यक्ष्मा आदि के रोगी को विरेचन नहीं दिया जाता। 3. वस्ति :- यह दो प्रकार की होती है :- आस्थापन वस्ति एवं अनुवासन वस्ति। आस्थापन वस्ति में विभिन्न औषधियों के क्वाथ का प्रयोग किया जाता है। अनुवासन वस्ति में विभिन्न औषधियों से सिद्ध स्नेह का प्रयोग किया जाता है। (वस्ति वह क्रिया है, जिसमें मूत्र मार्ग, गुदा मार्ग व घाव (व्रण) मार्ग से औषधि युक्त द्रव्य (क्वाथ या स्नेह) को शरीर में प्रवेश कराया जाता है। मूत्र या गदा मार्ग से प्रवेश कराने पर यह उत्तर वस्ति जाती ३ वा पत्र में चर्चा कराने पर यह वा वस्ति कहलाती है। अंग सो जाने पर, जोड़ों के । रोग, शुक्र क्षय, योनि शूल आदि में मुख्यत: वस्ति का प्रयोग किया जाता है। भोजन किए बिना अनुवासन वस्ति तथा भोजन के बाद आस्थापन वस्ति नहीं दी जाती। साथ ही अतिकृश, कास, श्वास व जिन्हें उल्टी हो रही हो उन्हें भी वस्ति नहा ६ नहीं दी जाती। 4. नस्य :- नाक द्वारा जब औषधि प्रयुक्त होती है, बिना तो उसे नस्य कहते हैं। नस्य को गले व सिर के रोगों की उत्तम चिकित्सा कहा जाता है। नस्य दो प्रकार से लिया जा सकता है। विशेष (अ), मर्श नस्य :- जब 6 से 10 बूंद तक दवा नाक में डाली जाये यह कभी-कभी प्रयोग में लाई योग एवं पंचकर्म चिकित्सा विशेषांक जाती है। (आ). प्रतिमर्श नस्य :- 1-2 बूंद मात्रा में नाक में डालने वाली दवा प्रतिमर्श नस्य के अन्तर्गत आती है। मात्रा कम होने के कारण इसे प्रतिदिन किया जा सकता है। कृश व्यक्ति, सुकुमार रोगी, मनोविकार, नींद अधिक, सर्प दशं आदि में नस्य नह प्रतिशय, मुख रोग, स्वर भेद, सिर के रोग, दंत शूल, कर्ण रोग कर्ण नाद आदि में नस्य देना चाहिए। 5. रक्त मोक्षण :- यह कर्म शल्य चिकित्सा पद्धति में आता है। इस कमें में दूषित रक्त को शरीर से बाहर निकालना होता है। यह क्रिया शास्त्र के द्वारा नस भेदन के द्वारा भी की जाती है तथा बिना शास्त्र के भी की जाती है। बिना शास्त्र के रक्त मोक्षण क्रिया के लिए आयुर्वेद में सबसे अधिक प्रचलित क्रिया जलौका, जोंक को स्थान विशेष पर लगा दिया जाता है। दूषित रक्त के चूसण के बाद उसे हटा लिया जाता है।