गुणों से भरपूर मकई

                                      गुणों से भरपूर मकई 


 


हमारे गुजरात में वर्षा ऋतु के सावन के महीने में या सर्दी के मौसम में हाइवे पर से गुजरते हैं, तब रास्ते के किनारे पर बैठकर मक्कई भुट्टा सेंककर बेचने वालों की कतारें नजर आती हैं। भुट्टे की खुशबू ही ऐसी होती है कि आने-जाने वाले टू व्हीलर्स-फोर व्हीलर्स या ट्रक वाले सभी रुक जाते हैं और एक दो मकई के भुट्टे खाकर ही आगे बढ़ते हैं। भुट्टे के बेचने वाले भी गरम-गरम भुट्टे । मुट नींब व काला नमक और मिर्च लगाकर जायकेदार बनाकर बेचते हैं। मकई के पोपकोर्न मकई, चीवड़ा, मकई, भेल मकई के पकौड़े इत्यादि बहुत सारे व्यंजन गुजरात के छोटे-बड़े शहरों में रात को एक-एक बजे तक मिलते हैं। मेरे बड़ोदरा शहर की कोर्पोरेशन ने खाने-पीने की सभी । सुविधाएं पूरी रात तक मिले इसीलिए रात्रि त्र बाजार भी अभी पंद्रह दिन पहले शुरू किए हैं। मक्का (मकाई) की पहचान देने की जरूरत ही नहीं है। स्वर्गस्थ श्री राजकपूर की फिल्म 'चारसो बीस' में एक गाना था। "इचक दाना, बिचक दाना, दाने ऊपर दाना, बोलो क्या? भूटा। यह गाना आज भी लोग सुनते हैं। लाल-पीली तथा सफेद रंग की मक्का (मकई) मिलती है। पंजाब-हरियाणा में तो मक्के के आटे की रोटी और सरसों का साग लोग बड़े चाव से खाते हैं। गुजरात की पूर्व दिशा में आए हुए शा छोटा डीदेपूर, नसवाड़ी, लीलवाड़ा, 7 राजपीपला, पंचमहल और उसके बगल वाले अलिराजपर आदि प्रदेशों में आदिवासी प्रजा सकड़ा वषो से मकई की खेती भी करती हैं और उनका मुख्य भोजन भी मक्के के आटे की हम इन आदिवासियों का ध्यान से अध्ययन = करेंगे तो निम्नांकित तथ्य जानने को मिलेंगे। 1. आदिवासी स्त्री-पुरुषों में मोटापा, मेदस्विता बिल्कुल ही नहीं है। ये लोग भैंसे जैसे मोटे-मोटे भी नहीं है बल्कि सुडौल, है सप्रमाणित स्फूर्तिले शरीर वाले हैं। 2. एक से ज्यादा पलियां रखते हैं। बच्चे भी पैदा करते हैं। इसका मतलब शुक्राणु स्वस्थ ब ण स्वस्थ बढ़ाने होता है। मिलाकर , है भुट्टे । 3. हृदय रोग, मधुप्रमेह, गंडमाला, कैंसर, नहीं कफ, थायराइड, मंदाग्नि, गैस और मेदोरोग कोसों दर हैं। बी.पी. या वृक्करोग (किडनी) । ' काढ़ा की बीमारियां भी नहीं है। ' अगर किसी को यह रोग है तो उसका कारण पथरी मक्का नहीं किन्तु बुरी आदतें, अति शराब । पीना और अति तंबाक खाना और धमपान करना व बीड़ी पीना है। मोटे मकई के विषय में आयुर्वेद के ग्रंथों में कुछ , भी नहीं है। कई विद्वान कहते हैं कि मकई = मकई भारत की पैदाइश ही नहीं है। मकई साऊथ। कसैली अमेरिका की पैदाइश है किन्तु में यह मानने को। 1 तैयार नहीं हैं। हमारी आवो-हवा को देखते हुए निकालती लगता है कि हमारे देश में सब कुछ हो सकता मैंने है। शायद प्राचीन कोई ग्रंथ या निघंटे में मकई के विषय में जानकारी हो, और वह ग्रंथ कहीं । , में , 4 गोवा में फसल ठाक नही होने की वजह यूनिवर्सिटी से। स राजा-राटा के कारण शहरा में मजदूरी करने वास्ते आए हुए हम वास्ते आए हुए हमारे आदिवासी मजदूरों को दखग ती देखेगे तो स्त्री-पुरुष दोनों ही कमर के नीचे से नामकर झुककर बड़े नमकर झुककर बड़े-बड़े गड्डे, तालाब खोदते है। बड़ी-बड़ी बहुमंजिलों में आसमान की और देखकर प्लास्टर आदि करते हैं। माथे सेबड़-बड़ रत-सिमट वाले लगारे और इंटे बड़े-बड़े रेत-सिमेंट वाले लगारे और ईटें उचकते हैं। उन्हें सर्वाइकल स्पोंडिलायसिस या जलाकर लबर से लंबर स्पोंडिलायटिस क्यूं नहीं होता। क्योंकि साथ उनके आहार में मकई के आटे की रोटियां खांसी मुख्य खुराक है। मेरा मानना है कि मकई अस्थियों को मजबूत करती है। टूटी हुई अस्थियां जोड़ने में सहायक है और यह एक रसायन है। वाजीकर है, आदिवासी किसान अपनी गाय-भैसों को दूध ब बढ़ाने के लिए मकई के दाने उबालकर नमक मिलाकर खिलाते हैं, जिससे दूध ज्यादा आता है और दूध के दोष भी दूर होते हैं। इतना ही नहीं यह मूत्रल भी है। मकई के बाल उबालकर । काढ़ा बनाकर पीने से मूत्र साफ आता है। मूत्र की जलन व पस सेल्स मिट जाते है। मैं अपने पथरी के मरीजों को यह देता हूं। मैं मकई को । अश्मरीघ्न भी समझता हूं। मकई का रस मधुर होते हुए भी रोजाना खुराक में इसका प्रयोग करने वाले आदिवासी मोटे नहीं होते। इसका मतलब यह हुआ कि = मकई जब कि मधुर भी है, अल्प मात्रा में कसैली भी है। शीत है, शोथ को दूर करती है। और लेखन कर्म के दोषों को उखाड़कर निकालती है। मैंने देखा भी है और अनुभव भी किया है। ग्रंथों जो कुछ मैंने यहां लिखा है, यह सब कुछ । में इसका नाम मात्र का उल्लेख मुझे मिला नहीं भारत की सर्वश्रेष्ठ जामनगर आयुर्वेद यूनिवर्सिटी तथा काशी विश्व विद्यालय या भारत सरकार का 'आयुष विभाग' इस मकई के बारे में संशोधन निरीक्षण करें, इतना ही नहीं अमरूद, पपीता और टमाटर जैसे सभी फल और खाद्य द्रव्यों के प्रति ध्यान देकर एक आयुर्वेदिक निंघटू प्रकट करके आयुर्वेद के , औषधि प्रयोग :- 1 मक्के के बालों को जलाकर उसकी भस्म या राख को शहद के साथ चाटने से किसी भी तरह की उल्टी, खांसी बंद होती है। 2. मूत्रकृच्छ मूत्र में पस सेल्स तथा मूत्रदाह ३) 3 अश्मरी रोग में देने से आराम होता है। । 3. हृदय रोग में आराम होता है। रक्त में से खराब कोलेस्ट्रॉल दूर करने के लिए एलोपैथी इसमें के डॉक्टर इससे बना तेल (Corn Oil) कोने ऑयल का प्रयोग करने को कहते हैं। हमारे गुजरात में कई-कई तरह के मकई के खाद्य व्यंजन बनाए जाते हैं। जैसे कि - 1. मकई के आटे का हलवा :- मकई के आटे को शुद्ध घी में धीमी आंच पर बादामी रंग मिलाकर उसमें दूध मिलाकर थोड़ा-सा गरम कर लें। बाद में बादाम इलायची मिलाकर डालकर खाइए। मकई का आटा और सिंघाड़े का अंत आटा समप्रमाण में लेकर भी हलवा तेजपात बना सकते हैं। यह हलवा पौष्ट्रिक बदले स्तन्य जनक और वीर्य वर्धक है। बना 2. मकई का चिपुड़ा :- दूध वाले स्थान दानों को मकई के भृट्टे से निकालकर थोड़े से क्रश कर लें। बाद में कढ़ाई में बहुत घी डालकर गरम कीजिए। बाद में अनाज कटी हुई थोड़ी-सी प्याज थोड़ी सी सरसों रहिएया जीरे का छोंक दें। बाद में क्रश किए हुए दाने मिलकर बादामी रंग होने तक भून ले बाद उसमें दध मिलाकर उबालकर गाढा कर लें। इसमें खांड-काली मिर्च, हरी मिर्च, दालचीनी, लौंग मिलाकर प्रयोग में लाएं। गुजरात के आदि। जाति के किसानों का यह मनभावन व्यंजन है। मकई का साग :- मकई के कोमल भुट्टे लेकर छोटे-छोटे टुकड़े बना लें, बाद में एक कढ़ाई में खाने का तेल डालकर गरम कीजिए। बाद में कटी हुई थोड़ी-सी प्याज थोड़ी-सी तरह से भून लें। बाद में उसमें मकई के भुट्टे वैकल्पिक चिकित्सा विशेषांक डालकर पर्याप्त पानी मिलाकर बराबर उबालें। अंत में नमक, हल्दी, अदरक, दाल-चीनी, तेजपात आदि मिलाकर उपयोग करें। पानी के बदले में छाछ मिलाकर खट्टटा साग या कढी बना सकते हैं। सर्दियों में भी इस साग ने अपना स्थान प्राप्त किया है। इसके उपरांत मकई का सूप, भेल आदि बहुत सारे व्यंजन मिलते हैं। इस बहु उपयोगी अनाज को आप भी अपनाइएं और स्वस्थ रहिए। स्वरचित श्लोक से मैं विराम लेता हूं। ‘‘मक्का शीतला वृष्या च, | मधुरा च रसायनी। पाचका रोचना हृद्या च, वृक्क दोषानु नाशीनी॥ वात-पित्त हरा बल्या. श्लेष्मला दाह नाशिनी। लघु-स्तन्या तथा शुक्रा, मूत्रला अस्थि संधानकरि॥