वात रोगों में लाभदायक पंचकर्म

प्राकृतिक दोषों को शरीर से बाहर निकालने के की सामावस्था को बनाए रखा जा सकता है। प्रधान वात विकारों के सामान्य लक्षण :- अस्थियों लिए की जाने वाली चिकित्सा ‘पंचकर्म' कहलाती कर्म से पूर्व किए जाने वाले कर्म जिसे पूर्व कर्म एवं संधिपर्वो में वेदना, अंग-प्रत्यंग में संकोच, है। इस चिकित्सा पद्धति में कई क्रियाएं की जाती कहते हैं जो की स्वेदन तथा स्नेहन कर्म कहलाते संधिपर्वो में जकड़ाहट, निद्रा का न आना, शरीर में हैं किन्तु पांच प्रधान कर्म होने के कारण इसका हैं। प्रधान कर्मों के पश्चात् किया जाने वाला पथ्य शून्यता का अनुभव होना, संपूर्ण शरीर में पीड़ा, नाम ‘पंचकर्म' कहलाता हैपालन एवं आहार व्यवस्था पश्चात् कर्म कहलाता थकावट का अनुभव होना। 1. वमन कर्म :- उर्ध्व मार्ग अर्थात् मुख से बढ़े है ३ हैपंचकर्म शरीर की शुद्धि के लिए की जाने वाली वात विकारों की चिकित्सा :-वात व्याधियों से हुए दोषों को निकालने की क्रिया वमन कर्म चिकित्सा है, इसे शोधन चिकित्सा कहा जाता है। ग्रसित रोगी के लिए पंचकर्म चिकित्सा सर्वश्रेष्ठ कहलाती है। कई गंभीर व्याधियां जैसे कुष्ठ, त्वक विकार आदि है। यदि केवल वायु के प्रकुपित होने से रोग उत्पन्न में यह चिकित्सा अत्यन्त लाभकारी है। वात 2. विरेचन कर्म :-अधोमार्ग अर्थात् गुदा मार्ग से होता है तो घृत, तेल आदि स्नेहों को मिलाकर व्याधियों में पंचकर्म चिकित्सा से अत्यन्त लाभ प्रकृष्ट दोषों को बाहर निकालना विरेचन कर्म स्नेहन किया जाता है। जब रोगी का पूर्ण रूप से प्राप्त होता है जिसमें स्नेहन कर्म एवं वस्ति कर्म तो कहलाता है। स्नेहन हो जाए तब संपूर्ण शरीर अथवा जिस अंग वात व्याधियों में उत्कृष्ट सफलता देते हैं। विकृत 3. वस्ति :-गुदा मार्ग, मूत्राशय अथवा योनि मार्ग या कपित हुए वात दोष से होने वाले विकार वात प्रदेश में वायु कुपित हो उस प्रदेश में वात नाशक से औषधियुक्त द्रव्य को शरीर के अंदर पहुंचाने विकार या वात व्याधी कहलाते हैं। वर्तमान समय तेल से मालिश कर स्वेदन कर्म किया जाता है। की क्रिया वस्ति कर्म कहलाती है। इसमें द्रव्य में अधिकांशतः वात व्याधियों से ग्रसित रोगी स्नेहन-स्वेदन से लाभ :- इससे शरीर में होने शरीर के अंदर पहुंचकर दोषों को साथ लेकर कुछ मिलते हैं। वृद्धावस्था में वात दोष की प्रबलता होने वाली वेदना संधि में शोथ, संधिशूल, अंगों में समय पश्चात् उसी मार्ग से बाहर निकल आते हैं। के कारण अधिकांशतः वृद्ध व्यक्ति वात विकारों जकड़ाहट आदि वात विकार शीघ्र ही शांत हो जाते वात दोष को दूर करने के लिए बस्ति कर्म किया से ग्रसित हो जाते हैं जिसमें संधिवात तो प्रायः हैं और अंगों में कोमलता उत्पन्न हो जाती हैजाता है। बहुलता से देखने को मिलता है। युवा वर्ग भी वात व वस्ति कर्म चिकित्सा :- स्वेदन कर्म पश्चात् 4. नस्य :- नासिका के द्वारा औषधि डालना नस्य व्याधियों से अछूता नहीं है। आजकल यवा वर्ग की अनुवासन अथवा निरूह वस्तियों के द्वारा कुपित * दोषों को शरीर से बाहर निकालना चाहिए। कर्म कहलाता है। व्यस्त दिनचर्या एवं अनियमित आहार-विहार से वात दोष उत्पन्न करते हैं। शुद्ध या केवल वात से वमन एव विरच 5. रक्तमोक्षण :- शरीर से दूषित रक्त को बाहर वमन एवं विरेचन कर्म :- यदि वायु के साथ निकालने की क्रिया रक्तमोक्षण कहलाती है। इस ता उत्पन्न हुए विकारों का वर्णन प्राप्त होता है। विकृत कफ एवं पित्त दोषा का संसर्ग हो जाए तो इस प्रकार इन पांचों कर्मों के द्वारा शरीर से कुपित दोष वायु अपने स्थान एवं कर्म के अनुसार उत्पन्न होने अवस्था में वमन एवं विरंचन कर्म की सहायता से ५ वाले रोगों से शरीर को पीड़ित करती है। संधिवात, कुपित हुए दोषी को बाहर निकालना चाहिए(वात, पित्त, कफ) को निकाल कर शरीर में दोषों । सिरागत वात, अर्दित, पक्षाघात, गृध्रसी, वात र वात रोगों में आहार-विहार एवं औषधि :मन्यास्तम्भ, आक्षेपक, हनुस्तम्भ कुछ ऐसे वात वात रा छ ऐसे वात वात रोग से पीड़ित रोगियों के लिए घृत, तेल विकार हैं जिनके रोगी बहतायत में देखने को मालिश, शरीर को गर्म कपड़े से ढक कर रखना, मिलते हैं। दुग्धपान, मधुर, अम्ल, लवण रस वाले आहार द्रव्यों का सेवन अत्यन्त उत्तम है। वात रोगियों के वात विकारों का सामान्य कारण :- अत्यन्त लिए पंचकर्म चिकित्सा अत्यन्त लाभकारी हैवात रूक्ष या शीत वस्तुओं के सेवन, अल्प मात्र में आहार सेवन, असात्म्य भोजन, शारीरिक चेष्टाओं रोगों की चिकित्सा में दोष, दृष्टा, स्थानादि का विचार कर विशेष चिकित्सा की जानी चाहिएतेल का अनुचित रूप से प्रवृत्त करना जैसे अधिक पैदल चलना, अधिक व्यायाम करना, अधिकप्रयोग भी वात विकारों में अत्यन्त लाभकारी है* यह विशेष रूप से वायु को दूर करने वाला होता तैरना, सुखपूर्वक शयन न करना, दिन में सोना, रात्रि में जागना, चिन्ता, शोक, क्रोध, मलमूत्रों के " है। वात व्याधियां शरीर को अत्यन्त पीड़ित करती हैं अर्थात् कष्ट पहुंचाती हैं, इसलिए यदि केवल वेगों को रोकना, चोट लगना, भोजन न करना आदि औषधि प्रयोग से रोगी को लाभ न मिल रहा है तो कारणों से शरीर में वायु कुपित होकर शरीर के किसी अंग विशेष में या संपूर्ण शरीर में विभिन्न उन्हें पंचकर्म चिकित्सा का सहारा लेना चाहिए। सहायक प्राध्यापक प्रकार के वात व्याधियां उत्पन्न करती है