योग एक, मार्ग अनेक

                       योग एक,  मार्ग अनेक 


 


परमात्मा हो या परमशांति या फिर गणित का कोई भी छोटा-सा सवाल, इन तक पहुंचने के या सवाल को हल करने के भले कई मार्ग व माध्यम होते हैं परंतु इनका उत्तर एक ही होता है। ऐसे ही योग की भी विभिन्न शाखाएं हैं, विभिन्न आसन और अवस्थाएं हैं परंतु सबकी मंजिल, सबकी उपलब्धि एक ही है। ‘योग’ शब्द सुनते ही अधिकतर लोगों के मन मस्तिष्क में शारीरिक आसन, प्राणायाम इत्यादि आ जाते हैं। लोग सोचते हैं योग यानी योगासन योग का ही पल दिया है पर यह योग को सही मायने में परिभाषित नहीं करता। योग का अर्थ है ‘जोड़' किन्हीं दो चीजों का मिलन, सन्धि। शरीर के विभिन्न आसनों के माध्यम से जब हम न वा । बाहर के अस्तित्व से जोड़ते हैं तो उसे तथाकथित ‘योगासन' कहते हैं। पर जब योग परमात्मा को, परमशांति को, परम आनंद को, परम शक्ति को, * परम सत्य व सत्ता को पाने के लिए किया जाता है। तो इसका अर्थ और गहरा और भिन्न हो जाता है। हर मनुष्य एक-दूसरे से भिन्न है। सबका स्वभाव व प्रकृति भी अलग-अलग है। यही कारण है कि सबके विचार, मार्ग, उद्देश्य, सिद्धांत व । मान्यताएं आदि भी । भिन्न हैं। कोई अंतर्मुखी है तो कोई का जो न कर व्यावहारिक है तो कोई औपचारिक किसी को दष्टिकोण वैज्ञानिक है तो किसी का काल्पनिक, कोई आध्यात्मिक है, तो कोई सांसारिक इतनी भिन्नता के कारण ही आज धरती पर अनेक धर्म, वाद, भाषाएं, मान्यताएं, संस्कृति व परम्पराएं आदि हैं पर इतनी भिन्नता के बावजूद भी जो सब में एक चीज सामान्य है वह है सुख-शांति की खोज, सकन और आनंद की तलाश। फर्क ये है कि आस्तिक आदमी के मार्ग भावनाओं एवं संवेदनाओं से होते परमात्मा तक जाते हैं और नास्तिक आदमी के मार्ग तर्क एवं व्यावहारिकता से होते तथ्य तक पहुंचते हैं। पर दोनों ही परम तक पहुंचना चाहते हैं फिर वह परम आत्मा हो या परम शांति, परम शक्ति हो या परम अस्तित्व, परम चेतन्य हो या परम मुक्त। उस परम को पाना सभी चाहते हैं। शायद यही कारण है कि मानव की विभिन्न प्रकृति को ध्यान में रखकर ही उस ‘परम' तक पहुंचने के कई मार्ग निर्मित किए गए हैं, जिन्हें विभिन्न योगों से जाना जाता है। साधना के ये विभिन्न योग मानव को उस ‘परम' तक पहुंचाने में पूरी तरह से मदद करते हैं। उपरी दृष्टि से योग के यह मार्ग परस्पर भले ही भिन्न है परंतु मोजल सबको एक ही है। भले ही भिन्न हैं परंतु मंजिल सबकी एक ही है। प्रारंभ सबका अलग-अलग है परंतु अंत एक ही है। है। फिर उसे मंत्र योग कहीं या हठ योग, राज याग कहो या ज्ञान योग, भक्ति योग कहो या कर्म योग । या फिर ध्यान योग। नाम और मार्ग ही भिन्न हैं। परिणाम सबका एक है। किस तरह व कितने भिन्न । ‘हैं आपस में यह योग, यह जानना जरूरी है, जो इस प्रकार हैमंत्र योग :- जप द्वारा चेतना को अंतर्मुखी करना। मिल । ही मंत्रयोग है। मंत्र के स्वरों में असीम शक्ति होती । है। कुछ स्वर ऐसे हैं जिनकी गति ध्वनि की गति । से भी तेज है। ऐसी ध्वनियां मनुष्य की ज्ञान शक्ति स पर है। मंत्र जाप के माध्यम से परे है। मंत्र जाप के माध्यम से साधक अपने संकल्प एवं इच्छानुसार अपने इष्ट देवता या उसकी शक्ति को प्राप्त करने की कोशिश करता है। इसमें मंत्रों का उच्चारण, आसन, मुद्रा, समय, अवधि, जाप संख्या एवं उसकी नियमितता अहम् भूमिका रखती है। जिसे बोल कर या मौन रहकर भी जपा जा सकता है। मंत्रों को रुद्राक्ष की माला के साथ शैव तथा तुलसी की माला के साथ वैष्णव प्रयुक्त करते हैं। मंत्र माला के बिना भी अभ्यास में लाए जा सकते हैं। हठ योग :- हठ का शाब्दिक अर्थ है 'संकल्प शक्ति' या किसी रखता काम को करने की या किसी पदार्थ को पाने की अदम्य इच्छा, फिर चाहे वह कितना ही असाधारण क्यों न हो। हठ योग में साधक मन को शांत करने के लिए शरीर को क्रिया कलापों तथा विभिन्न प्रकार के तप-त्याग, संयम-व्रत, मौन-उपवास आदि के द्वारा नियंत्रित करता है। इसका उद्देश्य शरीर को सुदृढ़ व सुयोग्य बनाना है ताकि शरीर कठिनतम से कठिनतम हालातों को सहन कर सके और शारीरिक व्याधियों से मुक्त हो सके। हठ योगी का साधक मानता है कि जितनी वह अपने शरीर को विभिन्न यातनाओं, कष्टों एवं व्रतों आदि से मजबूत बनाएगा उतना ही वह अधिक ऊर्जावान और शक्तिशाली बनेगा। इतना ही नहीं उनकी इस तपस्या से खुश होकर उनको उनके इष्ट देवता मन चाहा आशीर्वाद देंगे। राज योग :- आत्मा ही परमात्मा । कभी नहीं मरती न ही पैदा होती है ऐसा मानकर या अनघत में लेकर जो साधक स्वयं को जानने यानी मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, कहां जाऊंगा, । में लगता है तथा शरीर में रह रही आत्मा को परमात्मा से जोड़ने के अभ्यास में लगता है। । ‘राजयोग' कहलाता है। आंतरिक एवं वैज्ञानिक तथा व्यावहारिक दृष्टिकोण रखने वालों के लिए यह सबसे उत्तम साधन है। आत्मा का परमात्मा में मिल जाना ही इस मार्ग का उद्देश्य है। यह मन को साधनों और उसकी अलौकिक शक्तियों से संबंध रखता है। इस योग के माध्यम से आत्म ज्योति का अनुभव किया जा सकता है। सच तो यह है, बचपन से ही हमारे मन ने बाहर की वस्तुओं को देखा व जाना है। अंतर्जगत की गतिविधियों व विज्ञान से हम अपरिचित रह जाते हैं, इसलिए हम उसके निरीक्षण की शक्ति खो बैठे हैं। राजयोग में साधक अपने मन को अंतर्मुखी करता है। उसके बहिर्मुखी गति को रोकता है तथा उसकी समस्त शक्तियों को केंद्रीभूत कर, अपने मन पर उसका प्रयोग करता है ताकि अपना स्वभाव समझ सके और फिर योग से उस परम से जुड़ सके। ज्ञान योग :- आध्यात्मिक मुक्ति के लिए या यूं या ५ कहें परम शक्ति, परम सत्ता, परम सत्य या परम तत्व को जानने के लिए विवेकपूर्ण बुद्धि के उपयोग पर बल देना तथा उसके तर्क संगत निर्णय से ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचना ‘ज्ञान योग' कहलाता है। देखा जाए तो यह योग का बौद्धिक के और दार्शनिक पक्ष है। इसका साधक किसी बात बात को मानने पर नहीं जानने पर बल देता। वह स्वयं के अनुभव एवं ज्ञान को सत्य मानता है। ज्ञानी का * ज्ञान दो प्रकार का होता है- एक, हर एसा वस्तु से विचार हटाना और उसको अस्वीकार करना जो हम नहा है और दूसरा, कवल उस पर दृढ़ रहना जो कि वास्तव में हम है, और वह है केवल एक सच्चिदानन्द परमात्मा। ज्ञान योग, संसार को छोड़ने या त्यागने का मार्ग नहीं बल्कि संसार में रहकर संसार से निर्लिप्त रहने का मार्ग है। ज्ञान योग, सभी तरह के नाम रूपों, नियमों और शास्त्रों आदि से परे होना व उनसे छुटकारा पाना है। भक्ति योग :- भक्ति योग यानी अपने से भिन्न परमात्मा के अस्तित्व को मानकर उसकी पूजा- अर्चना करना। न केवल यह मानना कि भगवान बाहर है बल्कि एक मात्र वही सर्वगुण संपन्न श्रेष्ठ व सर्व शक्तिशाली' है। यह सारा संसार, प्रकृति, ‘ब्रह्माण्ड' आदि उसी के कारण चल रही है, उस उस पर स्वयं को समर्पित कर देना। प्रेम, श्रद्धा, समर्पण एवं पूर्ण चित्ताग्रस्त के साथ उसकी उपासना में लगे रहना ही भक्ति योग है। भावना प्रधान एवं संवेदनशील व्यक्तियों के लिए सर्वाधिक अनुकूल योग व मार्ग है। भक्तियोग में साधक श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य तथा आत्मनिवेदन, इन नौ ढंगों से अपने इष्ट को रिझाता व उसकी कृपा को प्राप्त करता है। देखा जाए तो भक्तियोग उच्चतम प्रेम का विज्ञान है। इसमें साधक जीवन की हर तकलीफ को भगवान का नाम लेकर उस पर छोड़ देता है तथा अटूट विश्वास रखता है कि यदि यह तकलीफ उसने दी है तो इन तकलीफों से बाहर भी वही । निकाले । कर्म योग :- जीवन में अपने हर कार्य, जिम्मेदारी एवं कर्तव्य को पूरी ईमानदारी के साथ यह सोचकर करना कि कर्म ही जीवन है, कर्म ही पूजा । है और कर्म ही प्रसाद। कर्म से सर्वोच्च कुछ भी। नहीं है। हम जैसे कर्म करते हैं वैसा ही फल पाते : हैं, यही 'कर्म योग' है। कर्मयोगी हर कार्य को का उसी का आदेश समझकर करता है तथा वह जो भी करना है अपने कर्ता घाव को उमी के चरणों में समर्पित करता है। वह मानता है कि जीवन अपने प्रत्येक रूप में कर्म के अतिरिक्त कछ और नहीं है। कर्म के बिना इस शरीर की यात्रा भी नहीं हो सकती। अपनी कर्मठता के द्वारा साधक जगत के साथ तादात्म्य स्थापित करके अपने योग एवं पंचकर्म चिकित्सा विशेषांक असली-स्वरूप को ढूंढ लेता है। देखा जाए तो कर्म योग इस बात का प्रतीक है। कि हमें किसी भाग्य या चमत्कार के भरोसे नहीं बैठना चाहिए, हमें अपने कर्म पर अपने भाग्य का निर्माण करना चाहिए। कर्मयोग में साधक का कर्म ही उसकी पूजा-अर्चना होता है। उसकी नजर में कोई भी कार्य छोटा-बड़ा या अच्छा बुरा नहीं होता, न ही वह कार्य के परिणामों में कोई भेद करता है। वह अपनी असफलताओं को भी गले उट इसलिए लगाता है, क्योंकि वह उनसे भी बहुत कुछ सीखता है। है ध्यान योग :- अपने मन को किसी कार्य या उद्देश्य में इतना तल्लीन कर लेना कि मन भी न बचे, ‘ध्यान योग' कहलाता है। अपने से अधिक शक्तिसंपन्न विचार में या प्रबल इच्छा में स्वयं को बिसरा देना, विलीन कर देना ध्यान है। गहरी और लगातार तल्लीनता से व्यक्ति धीरे-धीरे एक ऐसी स्थिति में पहुंच जाता है जहां वह सब कुछ भूल जाता है, यहां तक कि वह यह भी भूल जाता है। । कि वह शरीर है। यह तल्लीनता किसी सांसारिक लाभ के साथ-साथ शक्ति संपन्नता, सिद्धि प्राप्ति या फिर अलौकिक शक्ति को पाने के लिए भी हो । सकती है। परंतु जिसे हम विशेष तौर पर ध्यान कहते हैं वह परमात्मा में मिल जाने की है जो साधक को शरीराभ्यास से ऊपर ले जाता है। जिसे । कोई श्वासों पर ध्यान केंद्रित करके पाता है तो कोई चक्र कोई चक्रों को जाग्रत करके। कोई भूमध्य पर प्रकाश को देखता है तो कोई अनहद नाद को सुनता है। कोई नाचकर पाता है तो काइ गाकर। कोई मौन को साधता है तो कोई मंत्रों को। विभिन्न विधियों से साधक स्वयं को केंद्रित कर स्वयं को उसमें डुबोता है और ध्यान को उपलब्ध होता है।