आयुर्वेद में ऋतुचर्या

ऋतुचर्या का अर्थ है ऋतु के अनुसार ही पथ्यापथ्य पित्त दोष :- पित्त दोष वर्षा ऋतु में एकत्रित हो का सेवन करना अथवा ऋतु के अनुसार ही चेष्टा जाता है तथा शरत ऋतु के अम्लीय वातावरण में नया में और जीवनचर्या का पालन करना। पूर्ण वर्ष को इसका प्रकोप पाचन क्रिया में आई कमजोरी के आयर्वेद में दो काल में विभक्त किया गया रूप में सामने आता है। यह वर्षा ऋतु के बाद गर्मी है-आदान काल और विसर्ग काल। आदान काल में के पन: प्रकट होने पर शरीर में बढ़ कर विकति पृथ्वी का उत्तरी छोर सूर्य की तरु झुक जाता है। पैदा करता है। पृथ्वी की इस क्रिया के कारण धरती पर सूर्य की कफ दोषीत त में प्री में पवित्र टोनी गति उत्तर की ओर होती है। इस कारण इसे उत्तरायण (आयन अर्थात् गति) भी कहा जाता है। है जब ठंडक और नमी दोनों वातावरण में पवन आदान का अर्थ है 'ले लेना' यह वह काल मेघ एवं वर्षा के कारण अधिक मात्रा में हो जाते जिसमें सर्य एवं वाय अपने चरम पर आते हैंइस हैं। यह शरीर में ग्रीष्म ऋतु में बढ़ जाता है जब काल में सूर्य पृथ्वी की सब ऊर्जा और ठंडक ले गर्मी के कारण यह पिघलने लगता है। लेता है अतः इस समय में शरीर में कमजोरी आने छह ऋतुएं और उनमें पथ्यापथ्य व जीवनचर्या लगती है। दूसरा काल है विसर्ग काल, जिसमें पथ्यापथ्य :- मीठे, खट्टे और लवन युक्त पदार्थ पृथ्वी का दक्षिण छार सूर्य का आर मुखरित होता लेना इस ऋतु में हितकर हैहेमंत ऋतु में पाचन हैसूर्य को गति दक्षिण की ओर होती है इसलिए क्रिया प्रखर हो जाती है। बढ़ा हुआ वात ठंड के * यह दक्षिणायन भी कहा जाता है। इसे विसर्ग काल कारण अवरोधित हो जाता है और यह शरीर में कहा जाता है जिसका अर्थ है ‘प्रदान करना'। इस 1 इस धातुओं का नाश कर सकता है। अधिक मीठे, - काल में सूर्य धरती को ऊर्जा प्रदान करता है। अम्लीय और तिक्त पदार्थों का सेवन हितकर है। होता हैऐसा प्रतीत गेह, बेसन, दूध से बने पदार्थ, गन्ने के रस से बने होता है मानो यह संपूर्ण धरा पर नियंत्रण किए हुए पदार्थ, मकाई, खाद्य तेल का सेवन इस ऋतु में पदार्थ, मकाई, खाद्य तेल का सेवन इस ऋत में हैं। सब वनस्पति और प्राणियों को चंद्र पोषण प्रदान हितकर है। करता है। धरती को मेघ, वर्षा और पवन के कारण जीवनचर्या :- तेल द्वारा की गयी मालिश, केसर, ठंडक मिलती है। एक वर्ष में दो आयन होते हैं-उत्तरायण और दक्षिणायन एवं इनके कारण वर्ष कुमकुम अथवा बेसन से बना उब्वर्तन का प्रयोग करना, नियमित हल्का व्यायाम, नित्यप्रति धूप का में छह ऋतुएं होती हैं और हर काल में तीन ऋतुएं होती हैं। आदान काल में- शिशिर, वसंत और सेवन हितकारी है। चर्म, रेशम और ऊन से बने ग्रीष्म जबकि विसर्ग काल में वर्षा, शरत और कपड़ा के के कपड़ों को पहनना इस ऋतु में उचित है। हेमंत। हर ऋतु दो माह की अवधि लिए हुए है। वसंत ऋतु :- इस ऋतु में सूर्य की तीक्ष्णता बढ़ने ऋतु और तीन दोष से कफ पिघलने लगता है जिस कारण शरीर की अग्नि खास तौर पर जठराग्नि मंद पड़ जाती है। वात दोष :- ग्रीष्म ऋतु में एकत्रित होता है जब शोषण करने वाली गर्मी में पाई जाती है और वर्षा पथ्यापथ्य :- जौ, शहद, आम का रस लेना इस ऋतु के काल में यह पाचन क्रिया को कमजोर कर ऋतु में हितकर है। किण्वित आसव, अरिस्ट देती है। वातावरण में भी अम्लीय और वातज अथवा काढ़ा य = अथवा काढा या फिर गन्ने का रस लेना इस ऋतु प्रकोप देखने को मिलता है जब सूखी धरती पर में लाभकारी है। मुश्किल से पचने वाले ठोस, ठंडे, बारिश पड़ने से फंसी हुई वायु धरती से निकलती माद मीठे, अम्लीय, वसायुक्त, पदार्थ नहीं लेने चाहिए। है तथा धरती की सतह को अम्लीय बना देती है। जीवनचर्या :- व्यायाम, सुखी घर्षण वाली मालिश, नास्य, मालिश के बाद कपूर, चंदन और कुमकुम युक्त पानी से स्नान, इस ऋतु में करने योग्य है। इस ऋतु में दिन में अतिरिक्त स्नान नहीं करना चाहिए। ग्रीष्म ऋतु :- इस ऋतु में सूर्य की किरणों की तीक्ष्णता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है। कफ में कमी आ जाती है तथा वात लगातार बढ़ता है। पथ्यापथ्य :- मीठे, हल्के और तरल पदार्थ लेना हितकर है। ठंडे पानी का सेवन गर्मी के समय हितकारी हैठंडाई और पानक पंचकर जो पांच प्रकार के मधुर प्रकार के मधुर पदार्थों से बना है, इनका सेवन कर करना चाहिए। शराब का सेवन इस ऋतु में निषिद्ध है क्योंकि इससे शरीर में कमजोरी और जलन विकति जीवनचर्या :- शरीर को चंदन का लेप लगाकर स्नान करने से इस ऋतु में लाभ मिलता हैठंडी जगह पर वास करना उचित है तथा हल्के वस्त्र धारण करना उपयुक्त रहता है। जाते वर्षा ऋतु :- इस ऋतु में पाचन शक्ति और भी क्षीण हो जाती है। सब दोषों की विकृति के कारण पाचन क्रिया की कमजोरी अधिक बढ़ जाती है। इसलिए जठराग्नि को प्रदीप्त करना तथा दोषों का शमन करना आयुर्वेद में सर्वथा महत्वपूर्ण है। पथ्यापथ्य :- जठराग्नि को प्रदीप्त करने के लिए । आसानी से पचने वाले आहार का सेवन करना चाहिएदालें, सब्जियों का सूप, पुराना अन्न, , पतला हो । पतला दही इस ऋतु में लिया जा सकता है। । जीवनचर्या :- पंचकर्म की शुद्धि क्रियाएं. सुगंधियों का प्रयोग भी इस ऋतु में करने योग्य है। दिन म साना, अत्य दिन में सोना, अत्यधिक थकान और धूप में घूमना इस ऋतु में वर्जित कार्य हैं। , शरद ऋतु :- वर्षा ऋतु में पित्त का संचय शरीर में होता है। भोजन में तिक्त, मधुर, कशाय पदारतों का सेवन करना हितकर है। पथ्यापथ्य :- आसानी से पचने वाले भोजन जैसे चावल, हरा चना, आमला, शहद, शर्करा का सेवन हितकर है। भारी, गरिष्ट भोजन का सेवन, दही, तेल और शराब का सेवन इस ऋतु में वर्जित है। जीवनचर्या :- चंदन के साथ उद्वर्तन, गर्म पानी से इस स्नान और मोती से बनी आभूषण प्रयोग करना इस ऋतु में सार्थक हैऋतु पाचन तंत्र में किसी गड़बड़ी के कारण भोजन , न पचने को अजीर्ण या अपच कहते हैं।