पंचकर्म चिकित्सी एवं रोगों में लाभ

आयुर्वेद के अनुसार स्वस्थ रहने के लिए शरीर में वात, पित्त एवं कफ का संतुलित रहना बहुत अवश्यक है। आयुर्वेद में इन तीनों को त्रिदोष की संज्ञा दी गयी है। जब इनमे से किसी एक दोष का भी असंतुलन होता है तब शरीर में 3. आस्थापन एवं अनुवासन बस्ति एक विषैला रोगकारक तत्व आम की उत्पत्ति 4. शिरो-विरेचन (नस्य) हो जाती है। यह रोगकारक तत्व शरीर में अनेक रोगों को जन्म देने के लिए जिम्मेदार 5. रक्तमोक्षण होता है। पंचकर्म के माध्यम से शरीर का 1. वमन (Vomiting) :- यह चिकित्सा शोधन कर त्रिदोषों को संतुलित किया जाता है। उन रोगियों को दी जाती है, जिनमे कफ की आयुर्वेद में रोगो की चिकित्सा हेतु दो विधियां मात्रा अधिक हो। वमन के अंतर्गत औषधि बताई गई है। शोधन एवं शमन पंचकर्म इसी युक्त जल से उल्टी (Vomiting) करायी शोधन विधि के अंतर्गत आता है। रोगों के लिए जाती है। फलस्वरूप शरीर एवं श्वास-नली में जिम्मेदार दूषित दोषों को पंचकर्म चिकित्सा एकत्रित कफ (दोषों में से एक) विषों को दूर द्वारा शरीर से बाहर निकाल देने से अधिकांश करता है। रोगों का निवारण हो जाता है। रोगों में लाभ :- भूख की कमी, रक्तहीनता, यवेंट में रोग को अमल नष्ट करने के विषाक्तता, चर्म रोग, मधमेह, लसीका के लिए रोग के अनुसार किसी एक कर्म के द्वारा अवरोध, चिरकालिक अजीर्ण, सूजन, मिर्गी शोधन करने के पश्चात् ही औषधि के (दौरे के दौरान), चिरकालिक शिरानाल की आभ्यंतर प्रयोग का विधान है। बिना पंचकर्म समस्या, घरघराहट एवं श्वासहीनता, खाँसी, चिकित्सा के औषधि सेवन से रोगो का शमन ठंड, दमा के लक्षण, ज्वर, मिचली, परागज हो सकता है किन्तु समूल नाश नहीं हो सकता। ज्वर, श्वेतकुष्ठ, त्वचा रोग, उच्च अम्लता, अतः रोगों को जड़ से नष्ट करने के लिए मोटापा, मनोवैज्ञानिक विकार मिटते हैं। रसायन के सेवन से पूर्व शोधन आवश्यक है। 9 विरेचन [protion) . इस पंचकर्म के विभिन्न कर्म :चिकित्सा = शैशन विधि पूर्वकर्म :- 1. स्नेहन :- यह मालिश का एक भिन्न-भिन्न औषधि देने का प्रावधान है। भन्न-भिन्न औषधि देने का प्रावधान के रूप है। स्नेहन में औषधि यक्त तेल या घी से विरेचन एक औषधि युक्त परिष्करण चिकित्सा शरीर की मालिश की जाती हैं। इससे शरीर है, जो शरीर से पित्त दोष को दूर करता है। पष्ट होकर पंचकर्म की प्रधानकर्म की इसके अंतर्गत विभिन्न उत्कृष्ट जड़ी-बूटियाँ " विरेचक-औषधि के रूप में प्रयक्त होती हैं। यह जठरांत्र पथ का पूर्णतया शोधन करता है2. स्वेदन :- यह पसीना निकालने की एक प्रक्रिया का नाम है। स्नेहन करने के पश्चात रोगों में लाभ :- विभिन्न त्वचा रोग औषधि युक्त जल की वाष्प (Steam) से फोड़-फुन्सी, त्वचा को जलन, मुहासे, कब्ज, फोड़े-फुन्सी, त्वचा की जलन, मुँहासे, कब्ज, शरीर को गर्मी देकर का स्वेदन किया जाता हैं। सिरदर्द, बवासीर, उद्रीय अर्बुद, कृमि, स्त्रीरोग, चिरकालिक ज्वर के दौरे, पित्त की प्रधानकर्म पांच प्रकार के होते हैं - उल्टी, मिचली, पीलिया, मधुमेह, दमा, 1. वमन आंशिक पक्षाघात, शरीर के निचले हिस्से में 2. विरेचन पक्षाघात, गठिया आदि। 3. बस्ति :- इस कर्म के दो प्रकार हैं। दोनों प्रक्रियाओं को आयुर्वेद में अत्यधिक महत्वपूर्ण माना गया है। इन प्रक्रियाओं से समस्त प्रकार के वातरोगों एवं अन्य रोगों में स्थाई लाभ मिलता है। 1. आस्थापन बस्ति :- इस प्रक्रिया में खुश्क द्रव्यों के क्वाथ को गुदा मार्ग से बड़ी आंत में प्रवेश कराया जाता है। 2. अनुवासन बस्ति :- इस प्रक्रिया में स्निग्ध (चिकने) पदार्थों जैसे-दूध, घी, तेल आदि के औषधीय मिश्रण को गुदा मार्ग से बड़ी आंत में प्रवेश कराया जाता है। इससे विबंध, अर्श-भगन्दर, गुल्म, उदरशूल, आफारा इत्यादि रोगों में विशेष लाभ मिलता है। रोगों में लाभ :- सूजन, चिरकालिक ज्वर, साधारण जुकाम, यौन रोग, गुर्दे में पत्थरी, हृदय पीड़ा, उल्टी, पीठ-दर्द, गर्दन-दर्द, उच्च अम्लता, कब्ज, पाचन विकार, यकृत में वृद्धि, प्लीहा में वृद्धि, मोटापा, बवासीर, जनन-अक्षमता, साइटिका एवं जोड़ों के अन्य दर्द, संधिशोथ, आमवात, गठिया, मांशपेशियों में ऐंठन आदि। 4. नस्य (Nasal drops) :- इस विधि में नासिका के छिद्रों द्वारा औषधि युक्त विभिन्न तेलों का नस्य (SNUFF) दिया जाता है। नस्य कर्म के द्वारा सिर तथा गर्दन के हिस्सों में जमा हुए कफ रूपी विष समाप्त होता है। इससे सिर के अन्दर की खुश्की दूर होती है, एवं एकत्र पुराना कफ छींक आदि के माध्यम से बाहर आ जाता है। नस्य कर्म के अन्तर्गत पानी में जड़ी-बूटियों को उबालकर उत्पन्न भाप को श्वास के माध्यम से अन्दर लेना भी शामिल है। रोगों में लाभ :- माइग्रेन, स्मरणहीनता. नेत्ररोग, अनिद्रा, समय से पूर्व बाल पकना, गन्ध एवं स्वाद में कमी, नाक का सूखना, कर्कशता, अकड़ा हुआ कंधा, अधकपारी, गर्दन का कड़ापन, स्पोन्डलाइटिस, अजीर्ण, साइनोसाइटिस आदि। 5. 5. रक्तमोक्षण (Blood letting) :- इस कर्म में जोंक (Leech) का उपयोग कर दूषित रक्त शरीर से बाहर निकाला जाता हैं। त्वचा रोग एवं रक्त नलिकाओं से सम्बंधित रोगों में रक्तमोक्षण कर्म से विशेष लाभ होता हैं