श्वसन क्रिया का संचालन प्राण वायु एवं उदान एवं अन्जा हिक्का स्वयं ही शांत हो जाती है, जीवाणु Mycobecterium tuberculii से वायु के अधीन होता है। प्राणवह स्रोतस के अन्य तीन महा, गम्भीर तथा व्यपेता असाध्य होता है। आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार यह कफ माध्यम से प्राण वायु एवं उदान वायु के द्वारा होती है। दोष के कारण रसवाही स्रोतस के अवरोध होने उसके प्राकृत कर्म श्वसन क्रिया का संचालन श्वास : श्वास प्राणवह स्रोतस से संबंधित पर या तो शुक्रधातु के क्षय होने से होता है। सुचारू रूप से चलता रहता है जिनसे स्रवण प्रमुख व्याधि है जिसमें श्वसन क्रिया में कष्ट पार्श्वशूल : प्रकुपित कफ शरीर के कुक्षि होता है, उन्हें स्रोतस कहते हैं। स्रवण का होता है। कफ वृद्धि से प्राणवह स्रोतस में तथा पार्श्व प्रदेश में स्थित होकर वायु का अभिप्राय है कि स्रोतसों से रसादि धातुओं में से अवरोध उत्पन्न हो जाता है जिससे वायु कुपित अवरोध करती है जिसके कारण कुक्षि तथा पोषक तत्वों का स्रवण स्थायी धातुओं में होना। होकर श्वास रोगों को उत्पन्न करती है। आचार्य पार्श्व में शूल या पीड़ा होती है जिसके कारण आयुर्वेदानुसार तेरह प्रकार के स्रोतसों का वर्णन चरक ने इसे गम्भीर एवं प्राणहर माना है। रोगी को नींद भी नहीं आती। वात एवं कफ किया गया है जिनमें सर्वप्रथम प्राणवह स्रोतस इसकी उत्पत्ति में मंदाग्नि एवं आम का भी दोष के कारण होने वाले इस रोग को पार्श्वशूल है। स्वस्थ रहने के लिए इन स्रोतसों का प्राकृत विशेष महत्व है। आयुर्वेद में पांच प्रकार के कहते हैं। रूप से कार्य करना आवश्यक है। प्राणवह श्वास का वर्णन किया है जिसमें से तमक उपरोक्त सभी रोग प्राणवह स्रोतस से स्रोतस के अंर्तगत फुफ्फस तथा रसवाही श्वास आधुनिक शास्त्र में वर्णित Bronchial संबंधित है। इसके अतिरिक्त कुछ व्याधियां है धमनियों का समावेश किया गया है। प्राणवह Asthma से साम्य रखता है। तमक श्वास में जैसे कि क्षतक्षीण, शोष, स्वरभेद आदि रोग भी स्रोतस के विकारों में किसी न किसी रूप में मुख्य विकृति श्वसनिकाओं में होती है, प्राणवह स्रोतस से संबंधित है। प्राणवह स्रोतस श्वास-प्रश्वास की विकृति देखने को अवश्य मलद्रव्यों की उत्पत्ति, अतिस्रव एवं उत्तेजना से का मूल हृदय एवं रसवाही धमनियां माना गया मिलती है। यदि कफ दोष प्रकुपित होकर श्वसनिकाओं में संकोच एवं अवरोध उत्पन्न है। कुछ आचार्य प्राणवाही स्रोतस को वक्षगुहा प्राणवह स्रोतस का अवरोध करता है तो भी होता है। में स्थित फुफ्फुस को मानते हैं तथा इनका मूल श्वसन क्रिया बाधित होती है। कास : प्रकोपक कारणों से दूषित प्राण वायु, हृदय से फुफ्फुस में जाने वाली धमनी एवं धातुओं के क्षय होने से, मल-मूत्र के वेगों उदान वायु से मिलकर फूटे कांसे के पात्र के श्वासनलिका को मानते हैं। हृदय से धमनियों को रोकने से, रूक्ष आहारादि के सेवन से, शब्द के समान शब्द को उत्पन्न करता हुआ द्वारा रक्त फुफ्फुस में जाता है तथा अपनी क्षमता से अधिक कार्य करने से प्राणवह मुख से निकलता है। इसका कारण अनेक श्वासनिकाओं से प्राण वायु को ग्रहण कर स्रोतस दूषित होता है। इसके कारण श्वास गति विजातीय द्रव्यों या उत्तेजक द्रव्यों का श्वसन सिराओं द्वारा वापस हृदय में आ जाता है। इस का अधिक तेज होना, रूक-रूक कर अथवा प्रणाली में प्रविष्ट होना है। जीवाणु संक्रमण भी प्रकार से प्राणवह स्रोतस को आधुनिक शास्त्र कष्ट के साथ श्वास लेना यह लक्षण दिखाई कास का कारण है। में वर्णित Respiratory System से सामंजस्य देते हैं। प्राणवह स्रोतस से संबंधित मुख्य हृदय रोग : निदानों के सेवन से विकृत दोष किया जा सकता है। व्याधियां निम्नलिखित हैं :- हिक्का, श्वास, रस धातु को विकृत करके हृदय में पहुंच कर . पतंजलि आयुर्वेद कॉलेज, हरिद्वार कास, राजयक्ष्मा, पार्श्वशूल, हृदय रोग। आगे हृदय रोगों को उत्पन्न करते हैं। हृदय का मुख्य हम इनके विषय में जानेंगे। कार्य रस एवं रक्त का विक्षेपण करना है। हिक्का : मुख से द्वारा हिक-हिक शब्दों के विकृतकारक निदानों के सेवन से हृदय में दो साथ श्वास का बाहर आना हिक्का कहलाता प्रकार से विकृति हो सकती है। हृदय की है, आमतौर पर इसे हिचकी कहते हैं। ऐसे स्थानस्थ धातु की विकृति अथवा हृदय समस्त कारण जिनसे श्वास मार्ग पर विपरीत विक्षेपण में विकृति। हृदय रोग होने पर प्रभाव पड़ता है जैसे गुरु, विदाही, रूक्ष, शीतल विवर्णता, ज्वर, कास, हिक्का, श्वास, मोह, आहार का सेवन, धूल, तेज वायु का सेवन तृष्णा, वमन, वेदना आदि लक्षण मिलते हैं। आदि हिक्का के कारण होते हैं। यह कफ एवं राजयक्ष्मा : राजयक्ष्मा का सामंजस्य आधुनिक वात के प्रकोप से होता है। आयुर्वेदानुसार चिकित्सा में वर्णित Tuberculosis से किया हिक्का पांच प्रकार की होती है जिनमें से क्षुद्रा जा सकता है।
प्राणवहस्रोतस की उपयोगिता एवं मुख्य व्याधियां