हितोपदेश आयुर्वेद निरोग बनाने में सक्षम


सर्वमन्यं परित्यज्य गरीरमनपालयेत्। तदभावे हि भावानां. सर्वभावः शरीरिणाम अर्थात सब अन्य विचारों और कार्यों को छोडकर शरीर का पालन-पोषण कर उसे पृष्ट बनाना चाहिए क्योंकि शरीरधारियों का सब कछ शरीर पर ही निर्भर है। परमेश्वर ने मानव को संपूर्ण सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ - बनाया है। उसे सबसे अधिक विकसित बुद्धि और ज्ञान दिया है। मानव शरीर जीव-जंतु, पशु-पक्षी और वनस्पति सृष्टि में चेतन जगत में सबसे श्रेष्ठ है। मानव को सबसे अधिक सुख-सुविधाएं भी प्रदान की है। सभी सुखाभिलाषी हैं और मनुष्य की सुख की कामनाएं तो अनंत हैं पर लोकोक्ति में कहा गया है कि 'पहला सुख निरोगी काया'। सबसे प्रथम सुख निरोग शरीर है। इसीलिए मानव जीवन में सर्वोपरि महत्व भी स्वास्थ्य का ही है। स्वस्थ जीवन ही संपूर्ण सुख और सफलताओं का आधार है। 'धर्मार्थ काम मोक्षाणां आरोग्यं मूलमत्तमं'। मनीषियों ने मानव जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ काम और मोक्ष बताए हैं तथा इन सबका आधार आरोग्य ही है। ऋषियों ने कहा है 'शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्। अर्थात् संपूर्ण जीवन के कर्त्तव्य-कर्म करने के लिए स्वस्थ शरीर ही एकमात्र साधन है। उपनिषदों में भी संसार की सर्वोत्तम तत्व की तलाश में मनीषियों ने अनुभव किया कि वह तत्व शक्ति या बल ही है अतः उन्होंने उद्घोष किया 'बलं हि ब्रह्म बलं उपास्व' अर्थात् बल या शक्ति ही ब्रह्म है अत: बल की उपासना करो। दूसरे मनीषी ने घोषित किया कि आत्मा ही ज्ञातव्य है, प्राप्तव्य है तब मनीषी ने कहा कि 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः' अर्थात् उस आत्मा की प्राप्ति भी दुर्बल नहीं कर सकता। मानव जीवन का परम पुरुषार्थ आत्मा की प्राप्ति, आत्मज्ञान, आत्मानुभूति भी दर्बल को नहीं हो सकती। शरीर का महत्व समझाते हुए शास्त्रकार ने लिखा हैपुनर्वित्तं, पुनर्मित्रं, पुनर्माया, पुनर्मही। एतत्सर्वं पुनर्लभ्यं, न शरीरं पुनः पुनः॥ अर्थात् धन तो फिर से मिल जाता है, मित्र भी फिर से मिल जाते हैं। पत्नी भी फिर से मिल जाती है। भूमि भी फिर मिल जाती है। ये सभी तो बनाना बार-बार मिलते हैं पर शरीर एक बार ही मिलता शरीर है बार-बार नहीं। हर व्यक्ति की यही कामना रहती है कि वह दीर्घायु और निरोगी रहे। यही काम कामना हमारे ऋषियों ने भी व्यक्त की है। जीवेम शरदः शतम्। , पश्येम शरदः शतम्। भोदेम शरदः शतम्। अदीनः स्याम शरदः शतम्। सभी अजितः स्याम शरदः शतम्। अर्थात् हम सौ शरद ऋतुओं तक जीवित रहें। हम सौ शरद ऋतुएं देखें। हम सौ शरद ऋतुओं का आनंद लें। हम सौ वर्षों तक दीन, असहाय, । परावलंबी न बनें। हम सौ वर्षों तक अजित रहें सफलताओं अर्थात् कोई हमें पराजित न कर सके। हमारी शक्ति सामर्थ्य सौ वर्षों तक हमारे साथ रहे। सौ वर्षों तक हम प्रतिरोध करने में सक्षम रहें। तथा ऋषियों की यह कामना मात्र नहीं थी उन्होंने कहा स्वयं दीर्घायु तक स्वस्थ, निरोग रहकर बतलाया था अर्थात् तथा सौ वर्षों तक निरोग रहने के अपने . किलोमीटर लिए अनुभवजन्य के निर्देश भी दिए हैं। उन्होंने दिनचर्या, ऋतुचर्या का महत्वपूर्ण विवेचन उत्तराधिकार में आयुर्वेद में दिया है। आयुर्वेद केवल रोग निवारण की चिकित्सा प्रणाली मात्र नहीं है वह स्वस्थ दीर्घायु जीवन जीने की कला विचारणीय हमें सिखलाता है। आयुर्वेद केवल रोग के लक्षणों मनीषी की चिकित्सा नहीं करता अपितु वह शरीर के संस्थानों को संपूर्णतः सुधारता है। अब हम विचार करें कि हम दीर्घाय हों शतवर्षीय सखी सफल जीवन कैसे जी सकते पुरुषार्थ हैं? इसके लिए हमें ऋषि प्रणीत दिनचर्या. ऋतचर्या और जीवनचर्या के सूत्रों पर आधारित जीवन की कला को अपनाना होगा। दिनचर्या का प्रारंभ रात्रिकालीन निद्रा विश्राम के बाद जागरण से होता है। जागरण के संबंध में प्रथम सूत्र है ब्राह्ये मुहूर्ते उतिष्ठेत् स्वस्थः दीर्घमायुषा। अर्थात् स्वस्थ निरोग दीर्घ जीवन के लिए हमें ब्रह्म मुहूर्त में सोकर उठना चाहिए। यह ब्रह्म मुहूर्त या ब्राह्म बेला या अमृत बेला अर्ध रात्रि के पश्चात् 3 बजे से 5 बजे का काल होता है। उसके बाद उषाकाल होता है। जब सर्योदय से पहले पूर्व दिशा में प्रकाशमान लालिमा का नयनाभिराम प्राकृतिक दृश्य दिखाई देता है और उसके बाद होता है प्रभातकाल या प्रात:काल। जब बाल-रवि की सुकोमल सुहानी रश्मियों का प्रकाश प्राची क्षितिज पर दृश्यमान होता है, हमारे ऋषियों ने उगते सूर्य को नमस्कार करने का उद्देश्य दिया है। प्रात:कालीन सूर्य की किरणों में रोग निवारण की महत्ती शक्ति होती है। सूर्य से प्रार्थना की गई है सर्द रोग विनाशकारी सूर्य देव हमें आयु आरोग्य और ऐश्वर्य अर्थात् संपन्नता प्रदान कीजिए। उगते सूर्य को नमस्कार करने के लिए सूर्योदय के पूर्व सोकर उठने के लिए रात्रि में शीघ्र शयन करना चाहिए। प्रातः सोकर उठने के पश्चात् शौच मुखमार्जन, स्नान आदि से निवृत्त होना चाहिए। सोकर उठने हैके बाद प्रातः भ्रमण कर सके, एक-दो किलोमीटर टहल लेना शरीर के लिए हितकारी तो है ही, तनावों से मुक्ति और मन के लिए प्रसन्नतावर्धक है। व्यायाम की आदत डाल सकें तो सोने में सुहागा है। निरोगी जीवन के लिए जीने से संबंधित एक सूत्र अत्यंत महत्वपूर्ण और विचारणीय है। दिनस्यान्ते च पिबेद् दुग्धं, निशान्ते च पिबेज्जलम्। भोजनान्ते च पिबेत्तक्रं न सः क्वापिरोगी भवेत्॥ दिन के अंत में सोने से पूर्व गर्म दूध पीना, रात्रि समाप्त होने पर सवेरे जल पीना और भोजन के बाद मट्ठा पीने वाले को कोई भी रोग नहीं होता। दूध और मट्ठा का संबंध नगरीय, शहरीय जीवन में उपलब्धता से है पर पानी तो सर्व सुलभ है। सवेरे उठकर दो गिलास पानी और वह भी ताम्र-पात्र में रखा हुआ पानी पिया जाए। मंदिरों में ताम्र-पात्र में रखा जल तुलसीयम् युक्त चरणामृत्त दर्शनार्थियों को देने का विधान है। चरणामृत्त को अकाल मृत्यु को दूर करने वाला और सभी विघ्नों को दूर करने वाला कहा गया है। जो चरणोदक पीता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता अर्थात् वह मोक्ष पा जाता है। चरणामृत का तीन चम्मच तुलसीदल संयुक्त पवित्र जल स्वास्थ्य के लिए ताम्रपत्र का जल और तुलसी का महत्व प्रतिपादित करता है। स्वास्थ्य उत्तम होगारोग होगा ही नहीं तो अकाल मृत्यु नहीं होगी और निरोगी उत्तम स्वास्थ्य वाला शरीर सभी विन्ध बाधाओं को समाप्त कर जीवन में सफलता के शिखरों पर चढ़ने का सुअवसर देगाजिसका लोकजीवन सफल होगा वही परलोक जीवन का आधार है। उषापान :- उषापान के विषय में उसका महत्व समझाते हुए शास्त्रकार ने कहा है कि सूर्य 4 निकलने के समय आठ अंजली जल पीने से । मनुष्य कभी भी बीमार नहीं पड़ता उसे बुढ़ापा सपा भी सताता नहीं है। वह सौ वर्ष के पूर्व मरता भी मा लिखने नहीं है। बड़ी महिमा है उषापान की बवासीर, सूजन, सग्रहणा, ज्वर, पट क राग, कोष्टबद्धता (कोठे के विकार), चबी का बढ़ जाना, मूत्र संबंधी पीड़ाएं, रक्त-पित्त के विकार, नासिका आदि से रक्तस्राव, कान, सिर, नितम्ब व कमर की पीड़ा, नेत्र दोष आदि अनेक रोग रात्रि के अंत में अभ्यासपूर्वक जल पीने से ठीक "' हो जाते हैं। योगशास्त्र में नेति क्रिया के अंतर्गत भी प्रातः उषापान का बड़ा महत्व बतलाया गया है जिसमें रोगों के नाम का उल्लेख न करके सभी रोगों से विमुक्त होने का घोष करते हए कहा गया है कि रात बीत जाने के बाद तड़के ही जो व्यक्ति नासिक द्वारा जल पीता है उसकी बद्धि निर्मल होती है। उसकी आंखों की ज्योति बढ़ती है, सिर के बाल असमय सफेद नहीं होता। उसकी भूख बढती है तथा वह सभी रोगों से बचा रहता है। इन्हीं स्वास्थ्य-सूत्रों को जन सामान्य की ग्राम्यभाषा में भी कहा गया है_निम्ने पानी जो पिये, हरी मंजि जो खाय। दूध बियारी जो करे, तेहि घर वैद्य न जाएऔर भी प्रातःकाल खटिया से उठ के, पीये तुरंत पानी। कबहुं घर में वैद्य न अई है, बात घाघ की जानी॥ वाला नहीं तुलसी शरीर नियमित मल-मत्र विसर्जन भी निरोग रहने का जिनकीरा सामान्य उपाय है। सूत्र में कहा गया है- अभिजित मत्र परीषः सोऽरुक. सोऽरुका सूर्य आयुर्वेदाचार्य वाग्भट्ट ने यह सूत्र दिया है। अरुक् का अर्थ निरोग होता है। सूत्र के अंत में ही सपा तीन बार 'सोऽरुक्' लिखा है। सोऽरुक् तीन बार बार लिखने का तात्पर्य असंदिग्ध उपयोगिता पर जोर पर जार देना है। सूत्र का अर्थ है जो समय पर मल-मूत्र , का त्याग करता है वह कभी भी रोगी नहीं होता। मल-मत्र के आवेग को रोकना नहीं चाहिए और , खान-पान तथा आदत ऐसी बनानी चाहिए कि प्रात: नियमित उत्सर्जन हो। मलाशय में रूका मल ही रोगों का कारण बनता है। सर्वेषां रोगाणां कारणं कपित्त: मलः। प्रातः सभी रोगों का कारण कपित मल है। कब्ज के कारण मल की भीतर सड़ांध और गैस का बनना. गैस का (अपानवायु का) ऊपर जाना रोगों का कारण बनता है। स्वस्थ जीवन के लिए समय पर भोजन करना और समय पर नियमित मल उत्सर्जन होना चाहिए। इसकी आदत बनानी सिर पड़ती है। भूख भोजन शरीर के पोषण और श्रम से गई शक्ति । की पनाप्ति के लिए अति आवश्यक है। वर्तमान आपाधापी के समय में लोग समय पर भोजन नहीं करते हैं। करते भी हैं तो बहुत शीघ्रता में बिना पूरा चबाए निगल लेते हैं। भोजन करते समय मानसिक शांति और प्रसन्नता चाहिए। भोजन के संबंध में शास्त्रकार ने निर्देश दिया हैशतं विहाय भोक्तव्यं, सहस्त्रं विहाय स्नानमाचरेत्। लक्ष्यं विहाय दातव्यं, कोटि त्यक्त्वा हरि स्मरेत्॥ अर्थात् सौ काम छोड़कर भोजन करना चाहिए। हजार काम छोड़कर स्नान करना चाहिए। लाखों काम छोड़कर दान (अभयदान, ज्ञानदान, औषधिदान, श्रम सेवादान) देना चाहिए और करोड़ों कामों को छोड़कर हरि का स्मरण करना चाहिए। भोजन के संबंध में कोई अनुभवी ज्ञान कहता है अल्पं भुक्तं, बहु भुक्त। अर्थात् जो थोड़ा खाता है वह बहुत खाता है। तात्पर्य यह है कि जो स्वल्प भोजन करता है वह बहुत दिनों तक जीवित रहता है और दीर्घ जीवन क कारण ज्यादा जिनकीरा के कारण ज्यादा भोजन करने वालों की अपेक्षा भी ज्यादा भोजन करता हैवर्तमान युग में बीमारियों के तीन प्रमुख कारण। अर्थात् जल्दबाजी, बार बार बहुत शीघ्रता, तेज रफ्तार अर्थात् चिंता, त तनाव, अवसाद, उदासी। अर्थात् शराब पीने की लत या व्यसन। व्यसनों में वर्तमान यग । के और भी मादक द्रव्य हैं कोकेन, हीरोइन आदि। तात्पर्य यह है कि संपूर्ण दुखों का कारण जल्दबाजी, अशांति, चिंता. उदासी, तनाव और रूका शराब या अन्य मादक पदार्थों की आदत पड़ना है। निरोग और स्वस्थ जीवन के लिए भोजन महत्वपूर्ण है। भोजन से संबंधित सूत्र हैहितभुक् मितभुक्, ऋतुभुक्न सः क्वापि रोगी भवेत्। अर्थात् हितकारी भोजन करने वाला, सीमित भोजन करने वाला और ऋतु के अनुकूल भोजन मल करने वाला रोगी नहीं हो सकता। हितभक भोजन : बिना ज्यादा मिर्च-मसालों के  सादा, ताजा, शाकाहारी भोजन जिसमें हरी सब्जियों, सलाद, चोकर सहित आटा, सूखे और ऋतु के फल, संतुलित भोजन की परिभाषा में आने वाले पोषक पदार्थों से युक्त जिसमें शद्ध तेल, दूध, दही का समावेश हो। अंकुरित धान्य, अपक्वाहार, थोड़े फूले चने, मूंगफली दाने और गुड़ का नाश्ता। मितभुक् भांजन : सीमित भोजन, स्वाद या जीभ के चटोरेपन के कारण ज्यादा गरिष्ठ मीठा भोजन न कर पाना दुनिया में भूख से जितने लोग नहीं मरते उतने से ज्यादा अधिक भोजन से बीमार होकर मरते हैं। भोजन इतना करें जिससे पेट भारी न हो, पाचन तंत्र पर अनावश्यक दवाब न पड़े और भोजन के बाद का आलस्य भी न मजन के बाद का आलस्य भा न बढे। भोजन के बाद विश्राम के लिए नींद आ रही है और दुकान में, या ऑफिस में कुर्सी पर बैठना जरूरी है। ऋतुभुक भोजन : ऋतु के अनुकल भोजनअपनी पति के अनकल भोजन करना चाहिए। ग्रीष्म में शीतल पदार्थ तथा शीतकाल में गर्म प्रकृति के पदार्थ खाना उपयोगी है। भोजन से .संबंधित और भी बहुत से सूत्र हैं। कुछ थोड़ अवलोकनीय हैंभोजनान्ते शतपदं गच्छेत् भोजनान्ते वाम पार्वे शयेत भोजनान्ते दीर्घ निश्वसेत, भोजनान्ते तक्रं पिबेत् आदि। भाजन क बाद कम से कम सौ कदम चलिए। भोजन के बाद बाएं करवट लेटिये या सोइये। लंबी प्रवास लीजिए। भोजन के बाद मट्ठा पीजिए आदि। भोजन के साथ यानी और पेय पदार्थों का भी महत्व कम नहीं है। शरीर के वजन का तीन-चौथाई भाग जल, रस, रक्त आदि तरल पदार्थ है। स्वच्छ और लिखा अधिक पानी पीना स्वास्थ्य के लिए हितकर है। वस्त्रपूतं अग्निपूतं वा जलं पिबेत्। कपड़े से छाना और उबाला गया पानी ही पीना चाहिए। अधिकांश लोग भोजन के साथ पानी पीने के नियम को जानते नहीं हैं। इस संबंध . में ऋषियों का गहन चिंतन हमारा मार्गदर्शन करता हैअजीर्णे भेषजं वारि, जीर्णे वारि बलप्रदम्। भोजनेषु अमृतं वारि, भोजनान्ते च दुःखदः॥ अर्थात् अजीर्ण होने पर पानी पीना औषधि है। भोजन पच जाने के बाद (भोजन के 1-2 घंटे बाद) पानी पीना बलदायक है। भोजन के बीच-बीच में पानी पीना अमृत के समान है परंतु . भोजन के तुरंत बाद अधिक पानी पीना रोगकारक दुःख का कारण है। हम जो भी काम करते हैं शरीर की संपूर्ण आंतरिक शक्ति स्वचालित रूप से वहां काम करती है। भोजन के समय जठराग्नि प्रबल होती है। भोजन में आंतरित ग्रंथियां अपना पाचक स्राव मिलाती हैं पर ज्यादा लिए पानी भोजन के बाद पीने से जठराग्नि मंद पड़ . जाती है। भोजन के बाद आधा एक गिलास पानी ही पीकर हाथ-मुंह धो लेना चाहिए। 1-2 घंटे • बाद पर्याप्त पानी पीना चाहिए। सप्ताह में एक बाद पयाप्त पाना पाना चाहिएसप्ताह म एक बार उपवास या मात्र स्वल्प फलाहार, दुग्धाहार या अमृत भोजन खिचड़ी करना चाहिए। ___ आकाश से गिरने वाले निर्मल जल के विषय में आचार्य सुश्रुत ने सुश्रुत संहिता में लिखा है कि चिंता आकाश से गिरने वाला जल अव्यक्त रस यानी इसका स्वाद अव्यक्त रहता ह। यह अमृत क चिता .. समान जीवन के लिए उपयोगी, संतुष्टिदायक, परिश्रम के उपरांत एवं बिना परिश्रम के उत्पन्न शरीर धारक यानी शरीर को बनाए रखने वाला, थकावट दूर करने वाला, यह प्यास, नशा, मूर्छा, तंद्रा, निद्रा, शरीर की जलन तथा मनुष्य की सभी अवस्थाओं में अत्यंत पथ्यकारक यानी हितकारी होता है। किसी नाली की गंदगी दर करने केला ज्यादा पानी नाली में डालने से गंदगी नीचे की और बन जाती के उसी का अभि पानी पी जाने से शरीर के संचित विकास भी मूत्र के साथ निकल जाते हैं अतः पानी प्यास से भी पर अधिक पीना स्वास्थ्य के लिए हितकारी है। उत्तम स्वास्थ्य की परिभाषा में आचार्य ने लिखा हैं समदोष: समाग्निश्च, समधातु मलक्रिया। प्रसन्नात्मेन्द्रिय मनः स्वस्थ इत्यमिधीयते॥ अर्थात वात-पित्त-कफ की शरीर में स्वाभाविक समता, शरीर में मंदाग्नि, तीक्ष्णाग्नि, विष्माग्नि न होकर समाग्नि हो, अर्थात् भूख न कम लगे न ज्यादा लगे, शरीर में शरीर को धारण करने वाली सप्त धातुएं रस, रक्त, मांस, अस्थि, भेद, मज्जा, रज-वीर्य की उचित स्थिति तथा मल, मूत्र की उचित, नियमित उत्सर्जन क्रिया मन और इंद्रियों की समुचित क्रिया के साथ मन की प्रसन्नता के समयोग से व्यक्ति स्वस्थ माना जाता है। इस परिभाषा में मन की प्रसन्नता का स्वास्थ्य के साथ समावेश अपरिहार्य अंग है। - प्रसाद अर्थात् प्रसन्नता के विषय में गीता में कहा  " गया है'शरीर के स्वास्थ्य, इंद्रिय, मन की प्रसन्नता के साथ बुद्धि भी सबद्धि हो जो विवेक को जागृत रखकर जीवन को सत्पथ पर चलाती रहे। इसलिए जीवन की सम्यक् कला को सीखने के लिए कोई चिंता विशेष मन पर हावी न हो सके  ऐसा प्रयास किया जाना चाहिए। क्योंकि चिंता रोग व्याधि से भी बड़ी होती है।' खासकर रात्रि को निद्रा-विश्राम के समय जैसे हम पहिनने के वस्त्र खूटी पर टांग कर सोते हैं वैसे ही बिना चिंता के गहरी निद्रा का आनंद लेना चाहिए। गहरी पगाढ निदा दिन के कार्यों में खोई दर्द शनि को देकर नवीन शानिशी कोटा करती है। चिंता से बढ़कर कोई व्याधि नहीं है। चिंता से बढकर कोई रोग भी नहीं है। चिंता चिता से भी बढ़कर है। चिता मृतक को जलाती है परंतु चिता जावित को जला देता है। नहीं करनी चाहिए। चिंता को दूर करने के लिए बुद्धिमान व्यक्ति के लक्षण बताए गए हैंशते शोको न कर्त्तव्यो, भविष्यं नैव , चिन्ततयेत्। वर्तमानषु कार्यषु, प्रवत्तन्त विलक्षणः॥ अर्थात् बीते हुए का शोक नहीं करना चाहिए। केला बुद्धिमान व्यक्ति केवल वर्तमान में जीते हैं और वर्तमान का पूरा सदु सदुपयोग का परिणाम ही भविष्य करता है। जाव जीवन की कला के विषय में कुछ कवियों, शायरा न अ शायरों ने अपनी चिंतन अनुभूतियां लिखी हैंन मुंह छिपा के जिओ, न सर झुका के जिओ। गमों का दौर भी आए, तो मुस्करा के जिओ मन के स्वास्थ्य के लिए परमौषधि के समान है। मन का बोझ, तनाव, अवसाद. उदासी. - अट्टहास, हास और मुस्कुराहट की आहट पाकर दूर भागते हैं। यदि हंसते हो तो हंसने में, दुनिया साथ तुम्हारा देगी। रोते हो तो रोओ अकेले, दुनिया अपना रस्ता लेगी॥ जीवन में समस्याओं का कोई अंत नहीं परंतु जीना हमें है और समस्याएं सुलझाना हमें है- हर समस्या सुलझेगी, हर उलझना छोड़ दें। हर मंजिल मिलेगी, अगर हम भटकना छोड़ दें। स्वस्थ जीवन क लिए नित्य भाजन क समान उपकारी सत्संग भी एक परम उपयोगी उपाय है। यहा सत् अर्थात् परमेश्वर का संग, सत् अर्थात् सज्जनों का संग, सत् मित्रों, अच्छे साथियों का संग, सत्साहित्य अच्छी पुस्तकों का संग, सद्भाव-सद्विचारों का संग उक्त सभी सत्संग के अंतर्गत हैं। साथी मित्र न हो तो अच्छा पर कृत्रिम साथी न बन जाए। खूब सोच समझकर मित्र बनाना चाहिए। अंग्रेजी में व्यक्ति को पहचानने की कुछ पंक्तियां हैं : अर्थात् मनुष्य की पहचान उसके साथियों से होती है, किताबों से होती है जो वह पढता है। गीतों से होती है जो गनगनाता या गाता है। कैसों से होती है जो वह सुनता है और चित्रों से होती है ९ जिनसे वह अपना कमरा सजाता है। सत्संग के ही अंतर्गत है सभी रोगजनित दुखों से निवृत्ति का उपाय जो महर्षि व्यास जी ने श्रीमद्भागवत पुराण में बताया हैअच्युतानन्द गोविन्द, नामोच्चारण भेषजात्। नश्यन्ति सकलारोगाः, सत्यं सत्यं वदामि च॥ अर्थात् परमेश्वर अच्युतानन्द और गोविन्द नामों की उच्चारण-औषधि से संपूर्ण रोगों का नाश हो जाता है। यह बात म सत्य कहता हू, सत्य कहता हूं। व्यास जी ने दोबारा 'सत्य कहता हूं' कह अपनी बात का महत्व बढ़ाया है और भार । विश्वास कर हरि नाम स्मरण को प्रेरित किया है। . भगवान विष्णु के सहस्त्र नाम हैं उनमें से केवल दो नाम अच्युतानन्द और गोविन्द का उल्लेख महर्षि व्यास ने किया है। ये दोनों भगवान के नाम भी श्रेष्ठ से विचारणीय हैं। अच्युतानन्द का अर्थ है जो आनंद की स्थिति से च्युत नहीं होते। च्युत का अर्थ है गिरना, पतित होना जो करणीय कर्मों . से च्युत नहीं होता, यम नियमों का उल्लंघन नहीं करता जिसे अपने जीवन कर्त्तव्यों का बोध है । और जो उनके करने में चूक नहीं करता ऐसा भक्त हरि स्मरण में भी चूक न करें। भगवान तो अच्युतानंद हैं ही वह भी आनंद से च्यूत न होगा वह भी अखंड आनंद का अधिकारी बनेगा। आधुनिक मानव शरीर के वैज्ञानिकों ने शरीर की संरचना की संपूर्ण जानकारियां प्राप्त की हैं। मानव शरीर करोड़ों जीवित कोषों का समुदाय है और कोषों की संरचना में योगशास्त्र कोषों के यहा संबंध में वैज्ञानिकों की पहुंच के ऊपर की और में अर्थात् भी अदभत सक्ष्म ज्ञान की जानकारियां देता है। योग की भाषा में मानव शरीर पांच प्रकार के , कोष होते हैं सत्संग,1. अन्नमय कोष, 2. प्राणमय कोष, 3. मनोमय पर कोष, 4. ज्ञानमय कोष, 5. आनंदमय कोष। समझकर योग साधना द्वारा ज्ञानमय को जागृत कर आनंदमय कोष में स्थिति मानव जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि मानी जाती है। यह स्थिति ही समाधि या कैवल्य की स्थिति मानी जाती है। इस स्थिति की प्राप्ति होती है मन पर संयम व स्थापना करने पर मनोनिग्रह से। इंद्रियों का स्वामी मन है जिस इंद्रिय के साथ मन लग जाता तग जाता है। वह इंद्रिय अपने विषय की ओर दौड पडती है। हम इन इंद्रियों की संतुष्टि में लगे रहते हैं। इन कैसों इंद्रियों को मार नहीं डालना है। इन्हें सबल रखना है अतः इनका भोजन देकर भी उन पर लगाम . लगाकर संयम के कोड़े से नियंत्रित रखना है। भोग भोगते हुए भी इन्हें परम स्वच्छंद नहीं करना है। भोगों में हम जीवन के अर्थ को ही न भूल जाएं यम, नियम. संयम से च्यत नहीं जाएं। यही ध्वनि अच्युतानंद के निहितार्थ में निकलती है। गोविन्द शब्द में से इंद्रिय बोधक है। गोविन्द से भगवान गोविन्द नाम बना है। विन्द का अर्थ होता है छेदना, नकेल लगाना, बंधन में रखना, गोविन्द नियंत्रित करना। अत: गोविन्द का अर्थ होता है र इंद्रियों की स्वच्छंदता पर अंकुश लगाना, संयम , स्थापित करना। मनष्य को संसार में स्वस्थ. कहता शक्तिवान, दीर्घायु रहकर संयम से भोगों में भी व और उच्चस्तरीय जीवन की उपलब्धि का विस्मरण नहीं करना है। अच्युतानंद, गोविन्द नामों का उच्चारण या मानसिक जप करके हम वैसा ही जीवन निर्माण कर रोगों और दुखों से निवृत्ति पा सकते हैं।



आयुर्वेद में विभिन्न आचार्यों ने रोग उत्पत्ति के कारणों का उल्लेख किया हैसर्वेषाम रोगाणं कारणं कपितः मलः। अर्थात् सब रोगों का कारण कुपित मल है। मलाशय में जो मल अधिक समय रूक जाता है। , मलावरोध या कोष्टबद्धता नहीं होनी चाहिए। नियमित मल-उत्सर्जन की आदत बनानी चाहिए। यदि शौच का स्वाभाविक आवेग न आवे तो उषापान, विरेचक औषधि का प्रयोग करना चाहिए। आयुर्वेद में कोष्टबद्धता के निवारण के लिए हरीतकी हरड़ का बड़ा महत्व है। 'यस्य माता नास्ति तस्य माता हरीतकी' जिसकी मां नहीं है उसकी मां हरड़ है। और भी - हरीतकी मनुष्याणां, मातेव हितकारिणी। कदाचित् कुप्यते माता, नोदरस्था हरीतकी॥ अर्थात हर्र या हरड मनष्यों की माता के समान हित करने वाली है। माता तो कभी कोप भी कर सकती है, परंतु पेट में गई हरड हित ही करेगी। इस प्रकार हरड़ मां से भी बढ़कर है। अविवेकः असंयमो योगः रोगाणं कारण। अर्थात् स्वास्थ्य के नियमों का अज्ञात या जानते हए भी आहार-विहार में संयम का पालन न करना ही रोग का कारण है। प्रकति माता के लाल होता था पालन-पोषण करती प्र शासन को , रूप दंड देने से भी नहीं चूकती। अतः प्रकृति के अनुरूप जीवनशैली बनानी चाहिए। अ आसक्तिः भोगः रोगाणं कारणं। अशक्तिः अर्थात् शरीर में शक्ति का अभाव हो, शरीर दुर्बल हो और भोगों की ओर मन का अत्यधिक लगाव हो। संयम से शक्ति संचय न कर भोग दुर्बल हो तब उसे भोजन, व्यायाम, उचित औषधि प्रयोग, संयम तथा विश्राम द्वारा उसे पूर्ण स्वस्थ, शक्ति-सामर्थ्य-संपन्न न बनाकर इंद्रियों २. के विषयों में अमर्यादित आसक्ति रखकर " में शक्ति क्षय करने से रोग होते हैं। भोगवादी जीवन पद्धति अपनाकर भोगों को नियंत्रित न कर औषधि द्वारा शक्ति प्राप्त करने के प्रयासों को मात्रपूर्ण मान लेने से लोगों का शारीरिक दख स्थाई हो जाता है। क्योंकि रोगों में पथ्य करना अत्यंत आवश्यक व महत्वपूर्ण है। पथ्ये सति गदार्तस्य, किमौषधं निषेवषैः। पथ्ये असति गदातस्य, किमौषधनिषेवणैः॥ अर्थात् परहेज और पथ्य से रहने वाले के लिए औषधि की क्या आवश्यकता? पथ्यपालन और सम्यक आहार-विहार अपनाने से यह रोग होता ही नहीं फिर औषधि की क्या आवश्यकता? पथ्य परहेज न करने वाले रोगाबर्द्धक औषधि लेंगे भी तो वह रोग का निवारण न कर सकेगी इसलिए औषधि व्यर्थ होगी। यदि पथ्य पालन किया जाए तो बिना औषधि के भी रोग दूर हो जाएगा। यदि पथ्य का पालन न किया जाए तो सैकड़ों औषधियां भी रोग का नाश न कर सकेगी। बुद्धि को प्रलोभित करने वाले पदार्थ मदकारी कहलाते हैं। मदिरापान आदि व्यसनों से रोगों का जन्म होता है। शराब, गांजा, अफीम, कोकीन, हीरोइन इत्यादि पदार्थ बेहोश बना देते हैं। मदिरा की लत प्रथम रोग दुख अमावजन्य जीवन और अंततः मृत्यु का कारण बनती है। परिवार में अशांति, कलह और दरिद्रता तो आ ही जाती है। जीवन पूरे परिवार का नारकीय बन जाता है। सामाजिक सम्मान समाप्त हो जाता है। अधिकांश घातक एक्सीडेंटों के हादसे और गंभीर अपराध भी शराब की अर्ध-चैतन्य बेहोशी में होते हैं। विश्व की युवा पीढ़ी इन व्यसनों से बरबादी के रास्ते पर चल पडी है। वे अपने स्वास्थ्य को भुलाकर मृत्यु की ओर दौड़ रहे हैं। अपने माता-पिता परिवारजनों को अनाथ बनाकर जीवन भर रोने-सिसकने की स्थिति में छोड़ते हैं। जीवनं वीर्य रक्षणात् मरणं वीर्य नाशनम्। हमारे भोजन का अन्तिमसार पदार्थ वीर्य रज है। वीर्य की रक्षा से ही जीवन की रक्षा होती हैवीर्य रक्षा से हर शरीर बलवान, कांतिवान, ओजवान बनता है। साहस, शौर्य, आत्मविश्वास भी बढ़ता हैजीवन के संघर्षों में सफलता तेजस्वी, ओजस्वी लोगों के चरण चूमती है। वीर्यनाश मृत्यु की ओर मनुष्य को अग्रसर करता है। दुख, दैन्य, रोग, विफलता, उदासी, अवसाद उसे जीवन के आनंद से वंचित कर देते हैं। कौमार्य-व्रत का पालन करने से युवा के मुख पर आकर्षक ओज और किशोरी के चेहरे का लावण्य सौंदर्य बिना सौंदर्य प्रसाधनों के भी अत्यंत आकर्षक होता है।



जो कौमार्य व्रत का पालन नहीं कर पाते वे जीवन की दौड़ में बार-बार ठकराए जाते हैं। भारतवासी सौभाग्यशाली हैं जिन्हें पूर्वजों की विरासत में स्वास्थ्य ज्ञान का अक्षय भंडार आयुर्वेद और योग मिला है। जहां आयुर्वेद शत् वर्षीय स्वस्थ दीर्घाय जीवन का प्रेरणा संदेश देता है वहां योग तो निरोगता. अजरता (वद्धावस्था पर विजय और मृत्यु पर विजय) अमरता के दर्लभ उपाय बतलाकर उन्हें देवोपम बनाने की विधि बतलाता है। यजर्वेद के श्वेता श्वतरोप निषद के एक मंत्र का अर्थ नीचे दिया जाता है व्यर्थ जिसे पढकर पाठक योग के गणों और माहात्म्य को जानकर चकित होंगे। योगारंभ करते ही शरीर हल्का और फुर्तीला हो जाता है। शरीर निरोग और बहुत सुंदर हो जाता है। योगी का स्वर मीठा हो जाता है और शरीर से सगंध निकलती है। योगाभ्यास करने से शरीर के पंच तत्व अर्थात् मिट्टी, जल, वाय, , अग्नि और आकाश विशेष प्रकार से शुद्ध होकर उन्नति को प्राप्त होते हैं। इन पांच तत्वों से बने हुए शरीर में जब योग के गुणों का प्रवेश होता है तब इस योगाग्नि से तपाये योगी के शरीर में न तो रोग होता है न बुढ़ापा आता है और न मृत्यु उसे अपने वश में करके उसका नाश कर सकती है। योग में बिना श्वास के (श्वास प्रच्छवास बंद करके) बिना भोजन-पानी के दीर्घकाल तक विकास जीवित रहने का उल्लेख है। अथर्ववेद की 90 ऋचाओं में मृत्यु को जीतने के उपायों का संकेत दिया गया है। वर्तमान विज्ञान भी मृत्यु विजय के लिए प्रयत्नशील है। उस दिशा में वैज्ञानिक अग्रसर हो रहे हैं। अंततः वे वैज्ञानिक जो आधुनिक ऋषि हैं योग के सहयोग से अपने प्रयत्नों में सफल होंगे। शरीर, इंद्रियां, मन, बुद्धि, अहंकार (महातत्व) माया और ब्रह्म क्रमशः सूक्ष्मतर होते जाते हैं और कोई भी वैज्ञानिक उपकरण उस सूक्ष्मता का वैज्ञानिक परीक्षण न कर सकेग। क्योंकि जहां भौतिक विज्ञान का अंत हो जाता है उस बिंदु के आगे अध्यात्म का प्रारंभ होता है। अध्यात्म का तात्पर्य आत्मा और ब्रह्म है। यह आत्मा ही जीवन, चेतना, बल, शक्ति, मेधा, स्मृति, बुद्धि का आधार आश्रय है। आयर्वेद भी आय अर्थात जीवन संबंधी उपवेद ही तो है। हमारे ऋषि संसार, जीवधारी, खगोल, भूगोल, प्रकति, ऋतएं, काल, दिशाओं का बाहा ज्ञान तो रखते ही थे परंतु वे दिव्य अंतर्दृष्टि के भी स्वामी थे। उन्होंने उपनी अंतर्दृष्टि से सचेतन सृष्टि को देखा तो पाया कि मानव सृष्टि जीव जन्त, पश, पक्षी सृष्टि और वनस्पति सष्टि में एक ही तत्व चेतन सता का समावेश है। जिसे जीवन, चेतन, आत्मा, ब्रह्म कहते हैं। ऐसे महापरुष अभी भी हैं। देवता हिमालय के अंचल में हैं उनकी दृष्टि बाह्य दृष्टि नहीं है इसलिए उन्हें मतलब नहीं है। संसार के क्रियाकलाप से वे संसार का कल्याण कर सकते हैं। अपनी जगह बैठे-बैठे करते भी हैं क्योंकि वे जानते हैं सारे संसार में जीवात्मा तत्व समया हआ है। मानव का ज्ञान सीमित है इसलिए उसने ब्रह्मांड को, पृथ्वी को, मानव जाति को एवं स्वयं ज्ञान को भी बांट लिया है। पर ऋषि की दृष्टि में ये सब एक है, अखंड हैं। अज्ञात असीमित ब्रह्मांड को जहां तक मानव जान सका उसको उसने सूर्य मंडल कहा, सर्य की नाभि को केंद्र मानकर मंगल, बुध, पृथ्वी, चंद्र, गुरु, शुक्र, शनि, प्लेटो, हर्षल, नेपच्यून आदि ग्रह परिभ्रमण कर रहे हैं। हमने अपनी पृथ्वी को विविध देशों में बांटा, मानव जाति को उन देशों के निवासी के अनुसार एवं उनके रूप, आकार, वर्ण, नस्लों के अनुसार बांटा। भारत को भारत और पाकिस्तान में बांटा, देश को भी प्रदेश, जिला, तहसील, विकास खंड, ग्राम तथा मुहल्लों में बांटा। मानव को भी सेमेटिक आर्य, मंगोल, चीनी, हब्शी (अफ्रीका), रेड इंडियन (अमेरिका) आदि में आकृति और रंग के आधार पर बांटा। इसी प्रकार ज्ञान एक है, अखंड है पर विषय और अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से हमने उसे अनेक विषयों में बांटा रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र, जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, गणित, इतिहास, भूगोल, खगोल, अंतरिक्ष विज्ञान, कंप्यूटर, इंनीनियरिंग, चिकित्सा विज्ञान, नृतत्व शास्त्र, पुरातत्व, भाषा शास्त्र, वेदांत, सांख्य, योग, उत्तरमीमांसा, पूर्वमीमांसा आदि ज्ञान के खंड हो गए। चिकित्सा विज्ञान को विविध शोधों के होम्योपैथिक, आयुर्वेद, एलोपैथी, सूर्य चिकित्सा, विद्युत चिकित्सा, चुंबक चिकित्सा, प्रकृति चिकित्सा आयुर्वेद के इस उपेक्षित युग में भी किसी एक-एक व्यक्ति के पास एक बूटी एक रोग का विश्वसनीय इलाज सुरक्षित है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान और विशेषकर शल्य चिकित्सा ने संपूर्ण विश्व में आश्चर्यजनक उन्नति और प्रतिष्ठा प्राप्त की है। फिर भी नए-नए रोग सामने आ रहे हैं और रोगियों की संख्या भी जनसंख्या वृद्धि के साथ अनियंत्रित बढ़ रही है। आधुनिक इलाज बहुत महंगा है और सामान्य गरीब देशवासी की पहुंच के बाहर है। इस स्थिति में देश और विश्व आयुर्वेद की ओर आशाभरी नजरों से निहार रहा है। भारतीय प्राच्य विद्यायें, ज्योतिष, शास्त्रीय संगीत, भरत नृत्य, कत्थक नृत्य, ओडिसी, तंत्र, मंत्र, अध्यात्म विद्या संपूर्ण विश्व को आकर्षित करती है। भौतिकवादी जीवन जीकर संपन्नता और सुख सुविधाओं में भी अशांत, विदेशी जन भारत को शांति भूमि मानकर लाखों की संख्या में पर्यटक बनकर सभी भारत के कुंभ मेलों में आगतुकों की संख्या बढ़ती ही जाती है। कुछ तो यही रह , जाते हैं। विदेशी लोगों को यह भी आश्चर्य होता है कि भारतीय पुरुष नारी विवाह के बाद जीवनभर एक साथ कैसे रह लेते हैं। इनके तलाक विदेशों जैसे बार-बार क्यों नहीं होते हैं। इसलिए वे भारत में या विदेशों में भी भारतीय पद्धति से भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह कराने लगे हैं। इस्कान श्रीकृष्ण चेतना के द्वारा 125 देशों में 125 राधा कृष्ण मंदिर और 125 वृंदावनों की स्थापना की गई है। लाखों विदेशियों को मांस, मदिरा छुड़कार 'हरे राम हरे कृष्ण' की भक्ति में दीक्षित कर दिया गया है। स्वामी भक्ति वेदांत जी ने गीता और भागवत का अनुवाद विश्व की 200 भाषाओं में करवाकर विश्व में भारतीय ज्ञान और भक्ति का प्रसार किया है। स्वामी रामतीर्थ अंग्रेजी के साथ उच्चस्तरीय फारसी भाषा भी जानते थे इसलिए वे अमेरिका के साथ मुसलिम देश जहां आज तक किसी गैर मुसलमानों को मस्जिदों में प्रवेश ही नहीं दिया गया उन्होंने मिस्र, फारस, कैरो, वस्तुंतुनियां स्र, फारस, करा, वस्तुनिया बगदाद की बड़ी मस्जिदों में ज्ञान का डंका बजाया। स्वामी विवेकानंद भारतीय संस्कृति का घोष विश्व में कर सकते हैं। सर्वपल्ली राधाकृष्णन् विश्व के 36 विश्वविद्यालयों में अपने व्याख्यानों के लिए प्रशंसित हो सकते हैं तो आयुर्वेद में भी बहुत कुछ है जिसे देश के बाहर विदेशों में दिया जा सकता है। ‘जीवेम शरदः शतम्' का संदेश किसे न भाएगा। स्वास्थ्य तो विश्वव्यापी समस्या है। रोग निवारण तो सब जगह होता है। रोग न होने पाए इसे कौन न जानना चाहेगा? बस आयुर्वेद चिकित्सा निष्णात चिकित्सक आयुर्वेद के आधुनिक ऋषि विदेशी भाषाओं में भी सक्षम प्रभावी पद्धति में वितरित करने हेतु कम से कम विश्व की राजधानियों में पहुंच जाएं पर जिन्होंने आयुर्वेद और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का तुलनात्मक अध्ययन भी किया ही जाए। ऐलोपैथी की औषधियों का भी ज्ञान हो। जो मानव शरीर पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के साथ आयुर्वेद की हानिरहित औषधियों का विकल्प भी प्रस्तुत कर सकें।