शीत ऋतु और उससे बचाव


जीवेम शरदः शतम्। पश्यामि शरदः शतम्। श्रण्वामि शरदः शतम्। आदि सूक्तियों का उदघोष हमें बारम्बार आगाह कर रहा है और हम ईश्वर से सदैव यही मांगते आये हैं कि प्रभु! हम सैकडों शरद ऋतुओं तक जीवित रहें, सैकड़ों शरद ऋतुओं तक हमारी दृष्टि ठीक रहे या सैकडों शरद ऋतुओं को देख सकू। सैकड़ों शरद ऋतओं तक सुन सकू आदि-आदि। इन वेदोक्त स्तुतियों का क्या अभिप्राय है जरा विचार कर :- ऋषियों ने जीवेम ग्रीष्म शतम् या जीवेम वर्षा शतम क्यों नहीं कहा? अर्थात् इससे स्पष्ट ज्ञात नव (प्राणी) को शरद ऋतु से अधिक भय प्रतीत होता है तभी बार-बार सैकड़ों शरद ऋतुओं तक स्वस्थ और जीवित रहने की बात के माध्यम से शीत ऋतु में सचेष्ट रहने का संकेत किया है। भारतीय ऋतु व्यवस्था में सामान्यतः 4-4 मास की 3 ऋतुएं ही प्रचलित हैं यथा- ग्रीष्म, वर्षा और शीतऋतुएं शीतकाल को जनसामान्य भाषा में शरद ऋतु ही कहते हैं। इस ऋतु में बहुत से कशकाय व्यक्ति श्वास. कास और हृदय रोग से । पीडित व्यक्ति महाप्रयाण हो जाते हैं। भारत में कई गरीबी बाहल्य ऐसे क्षेत्र हैं जहां प्रतिवर्ष शीत के प्रकोप के कारण या उससे बचाव के साधनों के अभाव में सैकड़ो लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। इसीलिए शीत ऋतु अमीरों को और ग्रीष्म ऋतु गरीबों की कही जाती है। अमीर लोग गर्म वस्त्र पहन सकते हैं, गर्म जल से स्नान करते हैं। उनमें सामर्थ्य होती है इसलिए गर्म पदार्थ जैसे- केसर, ड्राइफ्रूट (बादाम, पिस्ता, छुहारा, काजू, किशमिश, चिरौंजी, चिलगोजा आदि) का सेवन करते हैं क्योंकि शीत ऋतु ही ऐसी ऋतु है जिसमें हर पौष्टिक " आहार ले सकते हैं और वह भलीभांति पच भी स मान भावों का शरीर में निर्माण होकर बल प्राप्त होता है। यदि ऐसा कहा जाए कि ये मौसम शक्ति संचय का मौसम है तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। इस मौसम में समृद्ध लोग वैद्यों के परामर्श से स्वर्ण रसायनों का सेवन कर वृद्धावस्था मैं यौवन का अनुभव करते हैं और दीर्घ जीवन प्राप्त करते हैं। किन्त ऐसा नहीं कि शक्ति महंगी वस्तुओं में ही या ड्राइफ्रूट में ही होती है। शुद्ध सात्विक निरामय सैकड़ों शक्ति हरी सब्जी और दाल तथा ऋतुफलों में ही होती है। इस मौसम में विविध प्रकार की हरी सब्जियां बाजार में उपलब्ध होती है। कारण कि शीत ऋत में चन्द्रबल प्रबल होता है। सूर्य बल न्यन इसलिए हरी सब्जियों का उत्पादन बढ़ जाता वर्षा है। इसी प्रभाव के कारण सूर्य की तापहीनता के परिणाम स्वरूप शीत पड़ने लगती है। लेकिन सूर्य की किरणों में प्रखरता वर्तमान रहती है। अत: इस ऋत की धूप भी स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी होती है। शीतऋतु में कृशाण्डू (कमजोर ) व्यक्ति की दिनचर्या :- शीत ऋतु में शीत का प्रभाव बढ़ मास जाता है। सूर्य जल्द ही अस्ताचल को चला जाता वर्षा है। थोड़ी-सी सावधानी बरतने से यह मौसम म प्रत्यक व्याक्त का वरदान सिद्ध हो सकता हैजिन व्यक्तियों का मौसम बदलते समय प्रायः । जिन व्यक्तियों का मौसम बदलते समय प्रायः स्वास्थ्य खराब हो जाता है। ज्वर, जुकाम और पेट संबंधी व्याधि या त्वचा की बीमारी आदि उन्हें ऋतू बदलने के पूर्व ही सावधान हो जाना चाहिए और बचाव के प्रयास पूर्व ही कर लेना चाहिए और ऋत के अनुसार सामंजस्य स्थापित कर रहना चाहिए। ऋतु के साथ सामंजस्य जल बैठाकर चलना ही ऋतचर्या कहलाती है। दर्ब इसलिए व्यक्ति को प्रायः शीत का प्रभाव शीघ्र होता है , इसलिए गर्म वस्त्र धारण करना. गनगने जल से , स्नान करना समय से शयन और प्रातः शीघ्र ही उठ जाना स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है। प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि इस मौसम में पित्त व कफ कारक वस्तुओं का सेवन न करें तथा गाजर, मूली, चुकन्दर, बाथ गोभी. पालक. सोया, मेथी, आलू, सरसों आंवला आदि का सेवन अधिक मात्रा में करें। शीतऋतु के भोजन स्वर्ण की अनुशंसा करते हुए महाराज भोज से महाकवि कालिदास ने कहा था :भोजनं देहि राजेन्द्र घृत सूप समन्वितम्। माहिषं च शरद चन्द्र-चन्द्रिका धवलं दधि। शीत ऋत में दालों का सेवन, द्यत, गुड, भैंस के दध का दही लाभप्रद माना गया है। यदि विधिवत बनाया गया मट्ठा (तक्र) का सेवन सोंठ जीरा और कालानमक मिश्रित करके या गड के साथ पूर्वाहन में किया जाए तो अमृत के समान गुणकारी होता है। मध तिक्त, कषायरस, शीतल तथा लघु आहार, मीठा-दध, मिश्री, शक्कर, मिश्री युक्त हरड़ धनियां सैंधवलवण, मुनक्का, परवल, अथवा आमला चूर्ण यव मूंग शालिचावल कमलनाल, कमलगट्टा नारियल अथवा नदी का जल, कपूर चन्दन आदि हितकारी है। इस ऋतु में पित्त कारक पदार्थों का परित्याग करना चाहिए। 'यथा वर्षाष क्षीयते पित्ते शरत्काले प्रकप्यति।' विशेषतः शरद ऋतु में शिशु, वृद्ध रूग्ण और विरोषतः शाट अत कोमलाण्डी स्त्रियों को शीत प्रभाव से बचकर पदना नाटिा रहना चाहिए। नियमित सूर्यताप, अग्निताप, नियमित अभ्यंग नाशालिदों नाखनों कर्णरंध नाभि गदा आदि में तेल लगाना चाहिए। यथा संभव नियमित व्यायाम भी करना चाहिए क्योंकि ग्रीष्म ऋत में व्यायाम इतना लाभप्रद नहीं रहता जितना शीत काल में। कपोदकंबटछाया श्यामास्त्री चैष्टिकां गहम। शीतलम॥ शीतकाले भवेदऊष्णं ऊष्ण काले च शीतकाल में जहां तक संभव हो कुएं के जल से प्रातः काल स्नान करना चाहिये। कुएं का जल शीत काल में प्राकृतिक रूप से गुनगुना होता है व शरीर के लिए लाभकारी भी होता है किन्तु आजकल जो हीटर या गीजर से कृतिम रूप से गर्म किए गए जल से स्नान करने की परंपरा है वह लाभ के बदले हानिकारक अधिक है, कृतिम रूप से गर्म किए जाने वाले पानी के विषय में यह ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने शरीर के तापमान से अधिक गर्म न हो वह पानी कभी भी हानिप्रद नहीं होगा यदि संभव हो तो थोड़ा-सा गनगना जल लगभग 200 मि.ली. पीकर फिर मान करें। कतिम रूप से जल को गर्म करना पदरी परिवेश की विवशता है। ऐसी स्थिति में सदैव बन्द स्नान घर में स्नान करना चाहिए, स्नान घर के अन्दर ही सभी अंतः वस्त्र तथा संभव हो तो बाहृय वस्त्र भी पहना कर तब बाहर आना चाहिए और ध्यान रहे स्नान के पश्चात् सिर में तौलिया आदि लगभग 15 मि. तक अवश्य लपेट कर रहें। इससे गर्म सर्द से बचाव होगा और जुकाम ज्वर कास का भय समाप्त हो जाएगा अन्यथाः गर्म जल से स्नान करने वालों । को इससे बच पाना कठिन होता है। इस मौसम में बरगद वृक्ष की छाया ऊष्णता गता प्रदान करती है खासतौर से रात्रि में। इसीलिए-साधु-संत लोग जो कम वस्त्र धारण करते हैं वह प्रायः बटवृक्ष के नीचे ही अपना आसन लगाते है। मिट्टी की ईटों से बना मकान भी गर्म होता है। कुएं का गर्म जल, बटवृक्ष की गर्म छाया, ' कच्चा बना मकान की गर्माहट कुदरत ने गरीब लोगों को नि:शुल्क प्रदान की है। इसी प्रकार से यह ऋतु रति क्रिया के लिए भी अत्यन्त अनुकूल माना गया है। अपनी प्रियतमा के संग अथवा षोडशी प्रेयसी के संग समागम करने से स्वास्थ्य लाभ और दीर्घायु प्राप्त होती है। यह पुरूष के लिए ही नहीं स्त्री के लिए भी लाभप्रद है। इस की दम मौसम में कामातर व्यक्ति प्रतिदिन सहवास कर पतिटिन सहवास का न ध्यान रखें सहवास के बाद पाश्चात् कर्म यथा ऊष्णोदक शिश्न या योनि पोट जिन या योनि प्रक्षालन आदि करें व पुरुष को चाहिए कि वह सहवास के पश्चात् दो छुहारे लगभग 200 ग्राम दध में उबालकर प्रथम छहारों का सेवन करें फिर ऊपर से वह गुनगुना दुग्ध पान कर लें। इससे तन्दुरूस्ती उत्तम, चेहरा लाल, मन प्रसन्न, उत्तमनिद्रा और बलवीर्य की वृद्धि होकर उत्तरोत्तर संभोग शक्ति बढ़ेगी। शीतऋतु में सूर्यताप सेवन :- शीतकाल में सूर्यताप और अग्निताप दोनों ही अति उत्तम माने गये हैं अतः उस पर भी संक्षिप्त में प्रकाश डाल रहा हूं ताकि पाठकों को इसका लाभ प्राप्त हो सकें। भानु पीठ, सेयिय उर आगी। स्वामिहि सेयिय सबु छलु त्यागी॥ -श्री रामचरित मानसे सर्वप्रथम सूर्योदय से पूर्व ही उठकर खुली और स्वच्छ शुद्ध जगह पर जाए यदि नदी का तट हो या पेड़ पौधों के सन्निकट हो जहां शुद्ध वायु प्रसरित हो रही हो तो अति उत्तम, वहां लंबी-लंबी दीर्घ श्वास लें चलते-फिरते रहें। जब सर्य की किरणों में कुछ प्रखरता आ जाए तब घर आ जाए। सर्वप्रथम सरसों के तेल में लहसुन या मेथी दाना डालकर उसे उबाल लें और धप मेंआसन बिछाकर किसी से या स्वयं ही उस गनगने तेल की हल्के हाथों से मालिश करें. नाशा छिद्र कर्ण छिद्र नाभि आदि में भी उस ' तेल को डालें। फिर जहां से सर्य की सीधी किरणें सामने आ रही हो उधर को पीठकर के और बैठ जाए जब तक पीठ और बाजुओं के नीचे से पसीना न आने लगे बैठे रहें जब पसीना आ जाए तब उसे किसी वस्त्र से पोछ दें और पनः पीठ - करके दोनों पैर और हाथ सीधे फैलाकर लेट जाए जब फिर पसीना आने लग जाए उसे पोछकर एक चादर ओढकर कछ देर भ्रमण करें जब शरीर कुछ शीतमय हो जाए तब गनगने जल से स्नान कर सकते है। यह क्रम यदि प्रतिदिन हो सके तो अति उत्तम अन्यथा सप्ताह में एक या दो बार तो सेवन करना ही चाहिए इस प्रकार सूर्य ताप का सेवन राजयक्ष्मा के रोगियों के लिए रामबाण है ही वहीं अर्धाग गठिया जैसे रोग से पाडत पीड़ित वात रोगियों तथा श्वास-दमा आदि रागिया कालए अभ्रत क समान रोगियों के लिए अभ्रत के समान है। याद इस प्रकार स भा सूयताप यदि इस प्रकार से भी सूर्यताप लेने में कोई कठिनाई हो तो कम से कम प्रतिदिन एक घंटा सूर्य की तरफ पीठ करके ही बैठ जाइये कुछ सूर्य की तरफ पीठ करके ही बैठ जाइये कुछ दिन नियम से, उससे भी काफी स्वास्थ्य लाभ होगा। इसका लाभ आज भी देहात में रहने वाले लोग उठाते हैं और वे शहरी लोगों की अपेक्षा बहुत कम वात रोग से पीड़ित होते हैं, दीर्घायु भी , होते है। शीत ऋतु में अग्नि ताप सेवन :- सूर्य ताप का सेवन सदैव प्रातः काल और अग्निताप का सेवन सायं काल किया जाता है। गांवों में आज भी प्रायः शाम होते ही प्रत्येक घर के बाहर अलाव जलाकर आग तापने की परम्परा चली आ रही है किन्तु जब अग्नि ताप लेना हो तो क्यों न विधिवतः लिया जाए जिसका लाभ हमें पूर्णरूप से मिल सकें :1 जहां तक संभव हो अलाव में गाय के गोबर के उपलों का प्रयोग करें। 2. आम, ढाक, पीपल या गलर की लकडी का प्रयोग भी उत्तम स्वास्थ्यकर है। 3. सर्वप्रथम एक हाथ चौडा और एक हाथ गहरा गडढा जमीन में खोद लें फिर उसने आग जला अथवा किसी तसले में भी आग जलाई जा सकती है। 4. आग सदैव सामने से तापना चाहिए कभी भी पीठकर क सेंक नहीं लेना चाहिए। . 5. तेज जलती हुई आग को कभी नहीं सेकना चाहिए। 6. जब आग की लपटें निकलना और धुआं बन्द हो जाए तब सेक लेना चाहिए7. वात और कफ रोगी को लहसुन या मेथी भावित तेल हाथ पैर और सीने पर लगाकर आग का सेंक लेना चाहिए। 8. यदि सीधे और नजदीक से सेक लेने में कोई असुविधा हो तो सूती कपड़े की पोटली बनाकर गर्म करके सेक ली जा सकती है। 9. ध्यान रहे अग्नि ताप लेने के बाद स्नान करना पैर हाथ मंह आदि धोना तथा शीतल जल पान करना स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हानिप्रद है। 10. अग्नि ताप के बाद तुरन्त कम्बल या रजाई ओढ़ कर कुछ देर के लिए लेट जाना चाहिए। 11. जिन लोगों का रक्तचाप अधिक बढ़ जाता हो, तमक श्वास, तीव्र ज्वर और मृगी के दौड़े पड़ते हों उन्हें सदैव अग्नि ताप के समय सावधान रहना चाहिए और किसी व्यक्ति को सदैव अपने पास रखना चाहिए तभी अग्निताप का सेवन करें। इस प्रकार अग्निताप का सेवन करने से अनेक व्याधियों से बचा जा सकता है और शीत ऋत के दष्प्रभाव से भी इस मौसम में नदी तालाब का जल साफ शुद्ध और लाभकारी होता है उसका भी यथा योग्य सेवन किया जा सकता है। शीत ऋत में खासकर श्वास, गठिया और हृदय रोगियों को भलकर भी उषा:पान नहीं करना चाहिए। प्रातः अन्धेरे में या जिस समय कोहरा पड़ रहा हो भ्रमण करना (उक्त रोगियों के लिए) कष्टप्रद होने के साथ-साथ अत्यन्त हानिकारक भी है।